SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६१) चरणकमलप्रण(णा)मोघृष्टवज्जा(ज)मणिकोटिरुचिरादि(रदी)धितिविराजितम(मु)कुटोद्भासितशिराः दि(दी)नानाथातुर(रा)भ्यागतार्थिजनस्लि (क्ति)ष्टपरि लिपिपत्र नवां. यह लिपिपत्र नेपाल के राजा अंशुवर्माके [श्रीहर्ष] संवत् ३९ (विक्रम संवत् ७०२) के लेखकी छापसे (१) तय्यार किया है. अ, आ, इ, ए और ख अक्षर, जो उक्त लेखमें नहीं मिले, वे उससे कुछ पिछले समयके नेपालके ही लेखोंमे लिये हैं. लेखकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तरः ई स्वस्ति कैलासकूटभवनादनिशि निशि चानेकशास्त्रार्थविमर्शावसादितासदर्शनतया धर्माधिकारस्थितिकारणमेवोत्सवमनतिशयम्मन्यमानो भगवत्पशुपतिभट्टारकपादानुगृहीतो बप्पपादानुध्यात : यंशुवर्मा कुशली पश्चिमाधिकरणवृत्तिभुजो वर्तमानान्भविष्यतश्च याहङ्कुशलमाभाष्य समाज्ञापयति विदितम्भवतु भवताम्पशु लिपिपत्र दसवां. यह लिपिपत्र वल्लभीके राजा धरसेन दूसरंके [वल्लभी]संवत् २५२ कि उस समयमें भी दो प्रकार की लिपियें प्रचलित थौं; एक तो पुस्तक, लेख, दानपत्र आदि. में बहुत सष्ट लिखी जाने वाली प्राचीन अक्षरों को, और दूसरी चीटियां आदि व्यवहारिक कार्यों में बरारी लिखी जाने वाली, प्राचीनसे निकली हुई, वर्तमान देवनागरीसे मिलती जुलती. इसी दानपत्रसे दो लिपियोंका होना प्रतीत होता है ऐसाह नहौं, किन्तु मथुरासे मिले हुए तुरुष्क राजाओंके समयके मक संवत्को पहिलो शताब्दीके लेखों में भी 'य' दो प्रकारसे लिखा है. जहां अकेला भाया है, वहां तो अशोकके समयके 'य' से मिलता जुलता है, परन्तु संयुक्ताक्षरों में जहां कहीं आया है, वहां वर्तमान देवनागरीके 'य'साही है. ऐसे ही गुप्त राजाओंके, और अन्य अन्य लेखों में भी संयुक्ताक्षरों में जहां कहौं 'य' आया है, वहां देवनागरीका ही है, राष्ट्रकूट ( राठौड़ ) राजा गोविन्द ( प्रभूतवर्ष ) के शक संवत् ७३० ( विक्रम संवत् ८६५) के दानपत्रकी लिपि स्पष्ट देवनागरीसौ है, और उससे केवल ४२ वर्ष पहिलेको वल्लभीके राजा शिलादित्य छठेके [ वल्लभी ] संवत् ४४७ (विक्रम संवत् ८२३ ) के दानपत्रमें बिल्कुल प्राचीन 'लिपि है, इसलिये पालौसे बनी हुई त्वरासे लिखीजाने वाली नागरीसे मिलती हुई एक प्रकारको लिपि शक संवत्के प्रारंभसे ही अवश्य प्रचलित थी. (१) इण्डियन एण्टिक्करौ (जिल्द 8. पृष्ट १७० के पासको प्लेट.) For Private And Personal Use Only
SR No.020558
Book TitlePrachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar Harishchandra Ojha
PublisherGaurishankar Harishchandra Ojha
Publication Year1895
Total Pages199
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy