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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यह लिपि आर्य लोगोंकी निर्माण कीहुई नहीं है, क्योंकि इसके अक्षर पालीसे न मिलने, इसके लिखनेका क्रम सेमिटिक लिपियोंकी नाई दाहिनी ओरसे बाईं ओरको होने, और कितनेएक अक्षरोंकी आकृति और उच्चारण ईरानकी प्राचीन लिपिसे मिलते हुए होनेसे अनुमान होता है, कि सन् ई० से करीबन ५०० वर्ष पहिले जब ईरानके पादशाह डारिअस प्रथमने इस देशपर हमला करके पंजाबके पश्चिमी हिस्सह तकका मुल्क दवा लिया था, उस समय ईरानकी लिपि गांधार देशमें प्रवेश हुई होगी, परन्तु वह पाली जैसी सम्पूर्ण न होनेके कारण उसमें नवीन अक्षर और स्वरोंआदिके चिन्ह मिलाकर इस देशकी भाषा स्पष्ट रीतिसे लिखीजानेके योग्य बनानी पड़ी होगी. इस लिपिका प्रचार इस देश में कबतक रहा, यह निश्चय करना कठिन है. पंजतारसे मिले हुए एक लेखमें (१) संवत् १२२ है, जो शक संवत् अनुमान किया गया है। इससे उस लेखका समय विक्रम संवत् २५७ होता है. हश्तनगरसे मिली हुई मूर्ति (२) के नीचे "सं २७४ पोठवदस मसस दिवसंमि पंचमि ५" ( सं २७४ प्रोष्टपदस्य (३) मासस्य दिवसे पंचमे ५) खुदा है. यदि यह भी शक संवत् मानाजावे, तो यह लेख विक्रम संवत् ४०९ का ठहरता है, परन्तु भक्षरोंकी आकृतिसे वह इस समयसे पहिलेका प्रतीत होता है. सिकों में तो इस लिपिका प्रचार विक्रम संवत्की तीसरी शताब्दीके पूर्वाईसेही छूट गया था, और इसके एवज़ पालीका प्रचार होगया था. इसलिये विक्रम संवत्की तीसरी शताब्दीके उप्सराई या पांचवीं शताब्दीके पूर्वाईमें गांधार लिपिका प्रचार इस देशमे उठगया होगा. अर्थात् मथुराकी, और दूसरी पश्चिमी अर्थात् काठियावाड़ ( सौराष्ट्र ) की. मथुराकी शाखा के लेख और सिक्के बहुत नहीं मिले, परन्तु सौराष्ट्रको भाखाके लेख और सिक्के इतने मिले हैं, कि एनसे क्रम पूर्वक २७ राजाओं के नाम मालम हुए हैं. इस भाखाका स्थापन करने वाला "नहपान" था, जिसको "कुसल पतिक" नामने शक राजाने सारे उत्तरी भारतवर्षको विजयकर दक्षिणके विजयको भेजा था. इसके जमाई उषवदात ( ऋषभदत्त ) के नाशिक के लेखोंसे पाया जाता है, कि " नहपान" बड़ा प्रतापी राजा था, और इसका राज्य दूर दर सक फैला हुआ था, इसके निःसंतान मरने पर इसका राज्य समोतिकके पुत्र चष्टनको मिला. सौराष्ट्र के चत्रप राजाओं के बहुतसे सिक्कों में (पक ) संवत दिया हुआ है. (१) प्राकि यालाजिकल सर्व आफ इण्डिया-रिपोर्ट (जिल्द ५, पृष्ठ ३१, प्लेट १६). (२) एभियाटिक सोसाइटी बंगालका जनल (जिल्द ५८, हिस्सह १, पृष्ठ १४५, प्लेट १०). (३) “प्रोष्ठपद” भाद्रपद मासका नाम है, For Private And Personal Use Only
SR No.020558
Book TitlePrachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar Harishchandra Ojha
PublisherGaurishankar Harishchandra Ojha
Publication Year1895
Total Pages199
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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