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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४. विशाल दृष्टि जो मानव नाम, रूप, लक्ष्मी, काम, भोगोपभोग एवं बाह्य ममत्वमें उलक जाता है, उसे धर्म नामक वस्तु की कतई दरकार नहीं होती। ऐसे लोग नामादिक के बनने के कारण पुरुषार्थ के सेवक नहीं बन सकते। -श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी पादरा दिनांक : ४-३-१९१२ नाम, कीर्ति, महत्ता व प्रतिष्टा के बुलबुले की आशा रख कर विश्व एवं अपना श्रेयः करने से किसी भी कार्य की परिपूर्ण सिद्धि नहीं हो सकती। अन्यजनों से मैं महान हूँ सदृश अहंकार को विस्मरण कर सर्व आत्माओं एकसा समझ उनमें निहित सदगुणों की उन्नति जिन-जिन उपायों से संभव हैं, उनका अनुसरण रूपी सेवा करनी चाहिए। ऐसी अवस्था प्राप्त होने पर मानव को सर्व सद्गुणों को विकसित करने हेतु प्रायः निष्काम सेवा का अधिकार प्राप्त होता है। किसी भी आत्मा को शत्रु न मान, उसकी उन्नति...प्रगति हेतु यथाशक्ति जो संभव हो, वह अवश्य करना चाहिए। इस तरह सर्व जीवों के सेवक या मित्र बन, उनका श्रेयः करनेवाला मानव सचमुच अनेकविध लोगों को जैनधर्म के प्रति अनन्य अनुरागी बना सकता है। ___जो मानव नाम, रूप, लक्ष्मी, काम, विषय-वासना, भोगोपभोग एवं बाह्य ममत्व में उलझ जाता है, उसे धर्म नामक वस्तु की कतई दरकार नहीं होती। ऐसे लोग नामादिक अर्थात् यश लोलुपता के सेवक बनने के कारण पुरुषार्थ के सेवक नहीं बन सकते। __वस्तुतः श्री वीर प्रभु की भाँति जो धन, कीर्ति, प्रतिष्ठा व सुख आदि बाह्य वस्तुओं को तुच्छ मान, उसका परित्याग करता है। निस्संदेह वही धर्म का प्रचार करने में समर्थ सिद्ध होता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020549
Book TitlePath Ke Fool
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagarsuri, Ranjan Parmar
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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