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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५५. योग का त्रिकोण व्यवहार में मानसिक चिंता का फल अर्थात् धर्म-ध्यानादि करना, विचार स्वरूप तथा वाणी-स्वाध्याय विधान फल देखने में आता है इस तरह मन व वचन आदि दो योगों को काया से अलग किया है। -श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी पादरा दिनांक : ३-४-१९१२ मन द्वारा होनेवाले ऐसे मति एवं श्रुत में पुद्गल मात्र निबंध का पूर्णतया अभाव है। जबकि इंद्रियों द्वारा होनेवाले मति एवं श्रुत में पुद्गल मात्र निबंधन नियत विषय परिणाम है। पंचेंद्रियाँ पुदगल मात्र निबंध नियमवाली हैं। प्रायः सभी वक्त गण काया के योग से शब्द-द्रव्यों को ग्रहण करते हैं और वचन योग से शब्द-द्रव्यों का विसर्जन करते हैं। जिससे मन वाग् द्रव्यों को ग्रहण करता है उसे कायिक योग की संज्ञा दी गयी है और जो मानसिक आवेग (संरंभ) द्वारा उक्त वाग-द्रव्यों को छोडता है, वह वाचिक योग कहलाता है। साथ ही जिस से मनोद्रव्यों को चिंतायुक्त करता है वह मनोयोग है। एक मात्र तनु योग ही उपाधि भेद के कारण तीन प्रकार से व्यवहारिक है। हाँलाकि व्यवहारतः देखा जाय तो सर्वत्र एकमात्र काय योग ही है । वास्तव में तनुयोग में मन एवं वचन का अंतर्भाव होता है। क्योंकि काय योग से केवल शब्द व मनोद्रव्य को ग्रहण किया जाता है। अतः प्राण एवं अपाय का व्यापार भी योग से भिन्न नहीं होता। अपितु उसका समावेश भी काय योग में ही होता है। व्यवहार में मानसिक चिंता का फल अर्थात् धर्म-ध्यानादि करना, विचार स्वरूप तथा वाणी-स्वाध्याय विधान फल देखने में आता है। इस तरह मन व वचन आदि दो योगों को काया ये अलग किया गया है। जबकि प्राण एवं अपाय का फल काय योग से भिन्न नहीं है। अतः उसे काया से अलग नहीं किया गया। १०८ For Private and Personal Use Only
SR No.020549
Book TitlePath Ke Fool
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagarsuri, Ranjan Parmar
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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