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५. “दुर्गुणों के नाश करने हेतु सद्गुणों का बार-बार चिन्तन-मनन-ग्मरणध्यान करना चाहिएँ।"
६. ज्ञानीजनों की अन्तिम खोज आत्मा का सहजानंद हैं। -रस मीमांसा
रस मीमांसा के समस्त पत्र जैनदर्शन की सूक्ष्मता से परिपूर्ण हैं, परन्तु उनमें दर्शन का गाम्भीर्य साहित्य-रस में पककर मधुर बन गया हैं-जैसे
१. “मन-वचन एवं काया के योग के बिना आत्म विकास की साधना नहीं हो सकती।"
"-त्रिवेणी"
२. “उद्यान में पुष्पित विभिन्न पुष्पों की भाँति मनुष्यभवोद्यान भी अनेक विचारों की महक से वातावरण को भर देता है।"
"-विश्व एक बगीचा' ।
३. “क्रोध व ईर्ष्यादि दुर्गुण-धारक लेखक अपने पत्र-पत्रिकादि में बारूद भर-कर वाचक वर्ग के हृदय में क्रोधादि दुर्गुणों की अधिकाधिक उत्पत्ति होवे-ऐसे लेख-लिखकर भाव-कसाई की पदवी का सरेआम अनुसरण करते हैं।'
"- प्लेग के जन्तु" -गागर में सागर१. “सद्गुण-विहीन विद्वान व्यक्ति ज्वालामुखी की तरह होता हैं।" -दयालु-मातातुल्य-गीतार्थ गुरु
२. “निष्काम भाव से धार्मिक कार्यो को अंजाम देनेवाले महात्मा-गण कभी दुःखी नहीं होते और ना ही शुभ-कार्यो से दूर रहते हैं।"
"- निष्काम भाव से शुभ कर्म करे" ३. “दुर्जन-मनुष्यों की संगति से मानसिक संताप होता है।" “सत्संगती-पारसमणि' अलङ्कारिता
"गुरुदेव के पत्रों में अलंकार की सुषमा मन को मोहित करती हैं। ये अलंकार पाठकवृन्द को सरलता से समझने में सहायक हैं:-जैसे कि-अनीति से प्राप्त प्रभुत्व भी प्रायः पूर्णिमा के चन्द्र की भाँति सदाकाल/सदैव टिक नही सकता"
"-जीवन-पुष्प की सुगंध-नैतिकता"
“आचार का स्वरूप एक तरह से नदी के आकार जैसा हैं, और विचार का म्वरूप मेध के जल जैसा हैं।"
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