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.पुरा पावे कभी नरकके दुःख पावे और जैसे कोई महास्वाद रूप परम अन्न उस विषे विष मिलावे दृखित करे ६८६" तैसे मूढ़ जीव उग्र तप को भोगाभिलाष कर दूरित करे हैं जैसे कोई कल्पवृक्ष को काट कोई की बाडि
करे और विष के वृक्ष को अमृतरसकर सींचेऔरभस्मकेनिमित्तरत्नोंकी राशिको जलावे और कोयलों के निमित्त मलिय गिरि चन्दन को दग्धकरे तैसे निदानबंधकर तपको यह अज्ञानी दूषित करें इस संसार में सर्व दोषकी खान स्त्री हैं तिन के अर्थ क्या कुकर्म अज्ञानी न करें जो इस जीवने कर्म उपार्जे हैं सो ॥ अवश्य फल देय हैं कोऊ अन्यथा करखे समर्थ नहीं जे धर्म में प्रीति कर फिर अधर्म उपार्जे बेकुगति । को प्राप्त होय हैं तिनकी भूल कहां कहिये जे साधु होयकर मदमत्सर घरे हैं तिन को उग्रतप कर मुक्ति नहीं और जिसके शांति भाव नहीं संयम नहीं तप नहीं उस दुर्जन मिथ्या दृष्टि के संसार सागर के तिरवे का उपाय कहां और जैसे असराल पवन कर मदोन्मत्त गजेन्द्र उड़े तो सुसा के उड़वे का
कहां आश्चर्य तैसे संसार की झूठी माया में चक्रवर्तादिक बड़े पुरुष भलें तो छोटे मनुष्योंकी क्या बात । इस जगत् में परम दुःख का कारण वैरभाव है सो विवेकी न करें आत्म कल्याण की है भावना जिन
के पाप की करणहारी बाणी कदापि न बोलें गणवती के भव में मुनों का अपवाद कीया था और वेदवती के भव में एक मंडलका नामा ग्राम वहां सुदर्शननामा मुनि बन में आये लोक वन्दना कर पीछे गये और मुनिकी बहिन सुदर्शना नामाअार्यिका नाम मुनि के निकट बैठी धर्मश्रवण करेथी सो बेदवतीने
देखकर ग्राम के लोकों के निकट मुनि की निंदा करी कि में मुनि को अकेली स्री के समीप बैठा देखाचब || कैयकोंने बाप्त मानी और कैयक बुद्धिवन्तीने नमानी परन्तु प्राममें मुनिका अपवादभया, तबमुनिने नियम |
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