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पद्म
18७॥
पद्मचिने कही एक मरते वैलको मैंने नमोंकार मंत्र दियाथा सो कहां उपजा है यह जानिये को इच्छा पुराण तब वृषभध्वज बोले वह मैं ऐसाकह पायन पड़ा और पद्मरुचि की स्तुतिकरी जैसे गुरुकी शिष्य करे
और कहता भया में पशु महा अविवेकी मृतुके कष्टकर दुखी था सो तुम मेरे महा मित्र नमोकार मंत्र के दाता समाधि मरण के कारण होते भये तुम दयालु परभवके सुधारणहारे ने महा मंत्र मुझे दिया उस से में राजकुमार भया जैसा उपकार राजा देव माता सहोदर भित्र कुटुम्ब काई न करे तैसा तुम किया जो तुम नमोकार मंत्रदिया उस समान पदार्थ त्रैलोक्यमें नहीं उसका बदला मैं क्या दूं तुमसे ऊरणनहीं तथापि तुमविषे मेरी भक्ति अधिक. उपजी है जोआज्ञा देवो सो करूं हे पुरुषोत्तम तुमत्राज्ञ दानकर मुझको भक्तकरो यहसकल राज्य लेवो मैं तुम्हारा दास यहमेरा शरीर उसकर इच्छाहोय सो सवा कावो इसभांति वृषभध्वज ने कही तब पद्मरुचिके और इसके अतिप्रीति बढ़ी दोनों सम्यवादृष्टि राजमें श्रावक के व्रत पालते भये ठौर २ भगवानके बड़े २ चैत्यालय कगए तिनमें जिनरिंद पधगए यह पृथिवी तिनकर शोभायमान होती भई फिर समाधि मरण कर वृषभध्वज पुण्यकर्म के प्रस.का दूजे स्वर्ग में देवभया देवांगना के नेत्ररूप कमल तिनके प्रफुल्लित करने को सूर्य समान होता भया वहां मनवांछित क्रीड़ा करताभया और पद्मरुचि सेठभी समाधि परणकर दूजेही स्वर्ग देव मया दोनों व परम मित्र भये वहां से चयकर पद्मरुचि का जीव पश्चिम विदह विश विजिय गिरि जहां नंद्यावर्त नगर वहां राजा नन्दीश्वर उसकी राणी कनकप्रभा उसके नयनानन्द नामा पुत्र भयो सो विद्याधरों के चक्रपद का संपदा भोगी फिर महा मुनियोंकी अवस्था धर विषम तप किया समाधि मरण कर चौथे स्वर्ग
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