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किसीको न परणती भई, और कन्या मुनियों की निंदा और जिनमार्गकी अश्रद्धामिथ्यात्व के अनुरागकर । पाप उपार्ज काल पोय आर्त ध्यानकर मई सो जिस वनमें दोनों मृगभए थे उसहीरन में यह गी भई सो पूर्वले विरोधकर इसी के अर्थ वे दोनों मृग परस्पर लड़कर मए, सो वन शूकर भए फिर हाथी भैंसा बैल वानर गैंडा ल्याली मीढी इत्यादि अनेक जन्म घरते भए और यह बाही जाति की तिचनी होती भई सो इस के निमित्त वे परस्पर लड़कर मए जल के जीव थल केजीव होय होय प्राण तजते भए और धनदत्तमार्गके खेदकर अति दुखी एकदिन सूर्य अस्त समय मुनियों के प्राश्रमगया भोला कछ जाने नहीं साधुवों से कहता भया में तृषाकर पीडित हूं मुझे जल पिलायो तुम धर्मात्मा हो तब मुनितो नबोले और कोईजिनधर्मी मधर वचनकरइसेसंतोष उपजायकरकहताभया हे मित्ररात्रीको अमतभीनपीवनाजलकीकहा बात जिस समय आंखोंकर कछ सझनहीं सक्ष्मजीवदृष्टि नपड़ेंतासमयदेवत्सदितू अतिश्रातुर भी होयतो, भी खोन पान करना रात्री आहार में मांस का दोषलागे है इसलिये तून कर जिस कर भव सागर में । डुपिये यह उपदेश सुन धनदत्त शांत चित्त भया शक्ति अल्प थी इसलिये यति न होयसका दयाकर यक्त है चित्त जिसका सो अणुव्रती श्रावक भया. फिर काल पाय समाधिमरण कर सोधर्म वर्ग में बड़ी ऋद्धि का धारक देव भया, मुकुट हार भुजबंधादिक कर शोभित पूर्वपुण्य के उदय से देवांगनादिक सुख भोगे फिर स्वर्ग से चय कर महापुरनामा नगर में मेरुनामा श्रेष्ठी उसकी धारिणी स्त्री के पद्म संच नामा पुत्र भया और उसहा नगर में राजा छत्रछाय राणी श्रीदत्ता गुणों की मंजपा है सो एक दिन सेठ का पुत्र पद्मरुचि अपने गोकुल में अश्व चढ़ा आया सा एक वृद्धति वलदको कंटगत प्राधा देखा।
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