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में झूट कहती हूं तो यह अग्निकी ज्वालाक्षणमात्रमें मुझे भस्म करियो जो मेरे पतिव्रताभाव में अशुद्धता पुरा होय राम सिवाय और नर मन से भी अभिलाषा होय तो हे वैश्वानर मुझे भस्म करियो जो मैं मिथ्या ४६ ॥ दर्शनी पापिनी व्यभिचारिणी हूं तो इस अग्नि से मेरी देह दाह को प्राप्त होवे और जो मैं महा मती पतिव्रता अणुव्रत धारणी श्रावका हूं तो मुझे भस्म न करियो, ऐसा कह कर नमोकार मन्त्र जप सीता सती अग्निवापिका में प्रवेश करती भई सो इसकेशील के प्रभाव से अग्नि यी सो स्फटिक मणि मारिखा निर्मल शीतल जल होयगया मानों धरती को भेदकर यह वापिकापाताल से निकसी जल में कमल फूल रहे हैं भ्रमर गुंजार करें हैं अग्निकी सामग्री सब बिलाय गई न ईन्धन न अंगार जलके उठने लगे और अति गोल गंभीर महा भयंकर भ्रमण उटने लगे जैसी मृदंग की ध्वनि होय तैसे शब्द जल में होते भये जैसा चोभको प्राप्तभया समुद्र गाजे तैसा शब्द वापी विष होताभया और जलउछला पहले गोड़ों तक आया फिर कमर तक आया फिर निमिषमात्रमें छातीतक याया तब भूमिगोचरी डरे और आकाश में विद्याधर थे तिनकोभी विकल्प उपजा न जानिये क्या होय फिर वह जल लोगों के केतक आयात प्रतिभय उपजा सिर ऊपर पानी चला तब लोग अतिभयको प्रासभये ऊंची भुजाकर बस्त्र और बालकों को उठाय पुकार करते भये हे देवि लक्ष्मी हे सरस्वती हे कल्यागा रूपनी हे धर्मधुरंधर हे मान्ये हेप्राणी दयारूपणी हमारीर चाकरो हे महासाधी मुनिसमान निर्मल मनकीचरणहारी दया करो हे माता वत्रावो २ प्रसन्नहोवो जबऐसे वचन विह्वल जो लोक तिनके मुखसे निकसे तब माता की दया से जल थंभा लोक बचे जलविषे नानाजाति के ठौर ठौर कमल फले जल सौम्यताको प्राप्तभया जे भवणउठेथेसो
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