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पन्न
18२०॥
लज्जावान् न होय है तू खडा रहो हमाग कुल शील तुझ वाणों से वतावें, तब पृथ भागता हुताथा सो पुराण | पीछा फिर हाथ जोड़ नमस्कार कर स्तुति करता भया तुम महा धीरवीर हो मेरी अज्ञानता जनित दोप
क्षमा करो में मूर्ख तुम्हारामाहात्म्य अवतक न जानाथा महा धीरवीरोंका कुलइससामंतताही से जानाजाय है कछु बाणीके कहेसेनजाना जाय है सोअवमेंनिसंदेहभया । बनके दाहकोसमर्थजो अग्नि सो तेजहीसे जानी जायहै सो श्राप परम धीर महाकुल में उपजे हमारे स्वामी हो महाभाग्यके योग्य तुम्हारा दर्शन भया तुम सबको मन वांछित सुख के दाता हो इस भांति पृथु ने प्रशंसाकरी तब दोनों भाई नीचे होय गये
और क्रोध मिटगया शांतमन और शांतमुख होय गये वज्रजंघकुमारों के समीप आया और सब राजे पाये कुमारों के और पृथके प्रीति भई जे उत्तम पुरुष हैं वे प्रणाम मात्र हीसे प्रसन्नताको प्राप्त होय हैं जैसे नदी का प्रवाह नम्रीभूत जे बेल तिनको न उपाड़े और जे महावृक्ष नम्रीभत नहीं तिनको उपाडे फिर राजा वज्रजंघको और दोनों कुमारों को पृथ, नगर में लेगया दोनों कुमार आनंद के कारण मदनांकुश को अपनी कन्या कनकमाला महाविभूतिसहित पृथुने परणाई एक रात्री यहां रहे फिर यह दोनों भाई विचक्षण दिगविजय करवे को निकसे सुह्यदेश मगध देश अंगदेश बंगदेश जीत पोदनापुर के राजाको प्रादि दे अनेक राजा संग लेय लोकाक्ष नगर गए उस तरफ के बहुत देश जीतेकुवेरकांत नामा राजा अतिमानी उसे ऐसा वशकीया जैसे गरुड़ नागको जीते सत्यार्थपने से दिन दिन इनके सेनावढी हजारों राजा वश । भए और सेवा करनेलगे फिर लंपाक देशगए वहां करण नामा राजा अतिप्रवल उसे जीतकर विजय स्थलकोगए वहांके राजा सौभाई तिनको अवलोकन मात्रही जीत, गंगा उतर कैलोश की उत्तर दिश।
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