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पन्न
पगा
प्राप्तभया केवल सीताही को दुख न भया मुख अथवा दुख जोप्राप्त होना होय सो स्वयमेव ही किसी ॥६॥ निमित्त से प्राय प्राप्त होय है हे प्रभो जो केई किसी को अाकाश में ले जाय अथवा क्रूरजीवों के भरे वन
में डारे अथवागिरि के शिखरधरे तो भी पूर्व पुण्य कर प्राणी की रक्षाहाय है सब ही प्रजा दुख कर तप्तायमान है अांसुवोंके प्रवाहकर मानों हृदय गल गया है सोई झरे है यह वचन कह लक्षमण भी अत्यन्त व्याकुल होय रुदन करने लगा जैसा दाह का माग कमल हाय तेसा होयगया है मुखकमल जिसका हाय माता तू कहांगई दुष्टजनों के बचनरूप अग्निकर प्रज्वलित है शरीर जिसका हेगुणरूप धान्य के उपजने की भूमि बारह अनुप्रेक्षा के चितवनकी करण हारी हशीलरूप पर्वतका पृथिवी हेसीते सौम्यस्वभाव कीधारक हे विवेकनी दुष्टोंके बचन सोई भये तुषार तिनकर दाहा गया है हृदय कमल जिसका गजहंस श्री राम तिनके प्रसन्न करनेको मानसरोवर समान सुभद्रा सारिखी कल्याणरूपर्सब
चार में प्रवीण परिवारके लोकों को मुर्तिवन्त सुखकी अाशिषा हे श्रेष्ठे तू कहां गई जैसे सूर्यबिना । आकाशकी शोभा कहां और चन्द्रमा दिनानिशाकी शोभा कहां से हेमातातो बिना अयोध्याकी शोभा । कहां इस भान्ति लक्षमण विलाप कर रामसे कहे हैं हे देव समस्त नगर बीण बांसुरी मृदंगादिकी ध्वनि
कर रहित भया है और अहर्निश रुदनकी ध्वनि दर पूर्ण है गलीगली में वन उपवन में नदियोंके तट में चौहटे में हाट हाट में घर घर में समस्त लोक रुदन करे हैं तिनके अश्रुपातकी धारा कर कीच होय ॥ रहा है, मानों अयोध्या में वर्षा कालही फिर आया है समस्त लोक आंसू डारते गद्गद् वाणी कर कष्ट
से वचन उचारते जानकी प्रत्यक्ष नहीं है पराक्षही है तौभी एकाग्रचित भये गुण कीर्तिरूप पुष्पों के
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