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1८८६
| कैसी भासे है जैसी संताप की भरी विरहनी नायिका अमुवन कर भरे नेत्र संयुक्त भासे और कहीं एक बनीनानापक्षियों के नादकर मनोहर शब्द करहै और कहूंएक निर्मल नीझरनावोंक नादकर शब्दकरती तीब्रहास्य करे है और कहूंइक मकरंद विषे अति लुब्ध जे भ्रमर तिनके गुजार कर मानों बनी वसंत नृप की प्रस्तुतिही करे है और कहूं इक बनी फलोंकर ननीभूत भई शोभा को धरे है जैसे सफल पुरुष दातार नमीभूत भये सोहे हैं और कहूंइक बायुकर हालते जे वृत्त तिनकी शाखा हाले हैं और पल्लव हाले हैं और पुष्प पड़े हैं सो मानों पुष्पवृष्टि ही करें हैं इत्यादि रीतिको धरे बनी अनेक क्रूरजीवोंकर भरी उसे देखती सीता चली जाय है राममें है चित्त जिसका मधुरशब्द सुनकर विचारती भई मानो रामके दुंदुभी वाजेही बाजे हैं इस भांति चितवती सीता आगे गंगा को देखती भई केसी है गंगा अति सुन्दर है शब्द जिसमें और जिसके मध्य अनेक जलचर जीव मीन मकर माहादिक बिचरेहें तिनके बिचरवे कर उद्धत लहर उठे हैं इसलिये कंपायमान भये हैं कमल जिसमें और मूलसे उपा हैं तीरके उतंगवृक्ष जिसने और उखाडे हैं पर्वतोंके पाषाणों के समूह जिसने समुद्रकी और चलीजाय है अति गंभीर है उज्वल फूलोंकर शोभे है झागों के समूह उठे हैं और भ्रमते जे भवण तिनकर महा भयानक है और दोनों हाहावों पर बैठे पची शब्द करे हैं सो परम तेज के धारक रथके तुरंग उस नदी को तिरपार भये पवन समानहै बेग जिनका जैसे साधुसंसार समुद्रके पारहोय नदीके पार जायसेना पति यद्यपि मेरुसमान अचल चित्त था तथापि दया के योग से अति विषाद को प्राप्त भया महा दुखका भरा कछु कह न सके अांखों से आंसू निकल आये स्थको थांभ ऊंचे स्वर कर रुदन करने लगा
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