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पुरास
1८८४
नीतिवान् पुरुषोंको कीर्ति इन्द्रादिक देवोंसे गाईयेहै ये भोग बिनाशिक तिन से क्या जिनसे अकीर्ति रूप अग्नि कीर्तिरूप बनको बाले यद्यपि सीता सती शीलवन्ती निर्मलचित्त है तथापि इस को घर में राखे मेरा अपवाद न मिटे यह अपवाद शस्त्रादिक से हता न जाय यद्यपि सूर्यकमलोंके वनका प्रफुल्लित करणहारा है अतितिमिरका हरण हागहै तथापि रात्रिके होते सूर्य अस्त होय है तैसे अपवाद रूप रज महा विस्तारको प्राप्तभई तेजस्वी पुरुषों की कांति की हानी करे है सो यह रज निवारनी चाहिये हैं हे भ्रातः चन्द्रमा समान निर्मल गौत्र हमारा अकीतिरूप मेघमालासे आबादा जायहै सोन श्राबादाजाय येही मेरे यत्न है जैसे सूके इन्धनके समूह में लगी आग जलसे बुझाये बिना बृद्धिको प्राप्त होयहै तैसे अकीर्ति रूप अग्नि पृथिवी में विस्तरहै सो निवारे बिना न मिटे यह तीर्थंकर देवोंका कुल महा उज्ज्वल प्रकाश रूपहै इसको कलंकन लगे सो उपाय करो यद्यपि सीता महानिर्दोष शीलवन्तीहै तथामिमें तनुंगा अपनी कीर्ति मलिन न करूंगा। तव लक्षमण कहताभया कैसाहै लक्षमण रामके स्नेह में तत्परहै बुद्धि जिसकी हे देव सीता को शोक उपजावना योग्य नहीं लोक तो मुनियों काभी उपवादकरे हैं जिनधर्म काअपवादकरे हैं, तो क्या लोकापवादसे धर्म तजिये है तैसे लोकापवाद मात्रसे जानकी कैसे तजियेजो सब सतियोंके सीस विराजे है का प्रकारनिंदाके योग्य नहीं और पापी जीव शीलवन्त प्राणीयोंकी निंदा करे हैं क्या तिनके बचनसे शीलवन्तों को दोष लागेहै वे निर्दोषही हैं, येलोक अविवेकीहैं इनके बचन मे परमार्थ नहीं विषकर दूषित हैं नेत्र जिनके वे चन्द्रमा को श्यामरूप देखेहैं परन्तु चन्द्रमा श्वेत ही है । श्याम नहीं तैसे लोकों के कहे निकलंकीयों को कलंक नहीं लगेहै जेशील से पर्ण हैं तिनको अपना
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