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न पान बनही में भपा जहां महा मनोग्य लताओंके मंडप और कलिके वृक्ष वहांगणी तिष्ठी और और पुराण
भी लोक यथायोग्य मुखसे बनमें तिष्ठे, गम हायीसे उतरकर निर्मलजलका भरा जो सरोवर नानाप्रकार के कमलोंकर संयुक्त उम बनमें रमते भए जैसे इन्द्र क्षीर सागरमें रमे वहां क्रीडाकर जलसे बाहिर प्राय दिव्य सामग्रीकर विधिपूर्वक सीतासहित जिनेन्द्रकी पूजाकरतेभए, राममहामुन्दर और बनलक्ष्मी समान जे बल्लभा तिनकर मंडित ऐसे साहते भये मानों मूर्तिवंतही है पाठहजार राणी देवांगना समान तिन सहित राम ऐसे साहें मानों ये तारावोंकर मंडित चन्द्रही हैं अमृत का आहार और मुगंध का विलेपन मनोहर सेजमनोहर अासन नानाप्रकारके सुंगध माल्यादिक स्पर्श रसगंधरूपशब्द पांचों इंद्रियों के विषय अति मनोहर रामको प्राप्त भए जिनमंदिर विषे भलीविधिसे नृत्यपूजाकरी पूजा प्रभावना में रामके अति अनुराग होता भया सूर्यसे भी अधिक तेजके धारक राम देवांगनासमान मुन्दरजे दारा तिन सहित कैयक दिन सुख से बन में तिष्ठे ॥ इति पिचाणवा पर्व संपूर्णम् ॥
अथानन्तर प्रजा के लोक राम के दर्शन की अभिलाषा कर बनहीं में आये तैसे तिसाये पुरुष सरोवर पै आवें, तब बाहिर ले दरवान ने लोकों के प्रावने कावृत्तांत द्वारपालीयों से कहा वे द्वारपाली भीतर राजलोक में रामसे जायकर कहती भई कि हे प्रभो प्रजाकेलोकाप के दर्शनको आये हैं और सीता की दाहिनी आंख फुरकी तब सीतो विचारती भई यह अांखमुक्षे क्याकहे है कछु दुःखका अागमन बतावे है अागे अशभ के उदय कर समुद्र के मध्य में दुख पाये तो भी दुष्ट कर्म संतुष्ट न भया क्या और भी । दुख दीया चाहे है जो इस जीक्ने रागद्वेष के योग कर कर्म उपार्जे हैं तिन का फल ये प्राणी अवश्य पावे हैं
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