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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ण्या प्रभावकर चमरेंद्रकी प्रेरी मेरी दूरभई जैसे श्वशुरको देखकर व्यभिचारणी नारी दूर भागे मथुराका समस्त मंडल सुखरूप भया बिनावा हे धान्य सहजही उगे समस्त रोगों से रहित मथुरापुरी ऐसी शोभती भई ८६५" जैसे नई बधू पतिको देखकर प्रसन्न होय, वह महामुनि रसपर त्यागादि तप और बेला तेला पचोपवासादि पुरा अनेक तपके धारक जिनको चार महीना चौमासे रहना तो मथुरा के बनमें और चारणऋद्धि के प्रभावसे चाहे जहां आहार कर वें सो एक निमिष मात्रमें आकाश के मार्ग होय पोदनापुर पारणाकर अ. ये कभी विजयपुरकर या उत्तम श्रावकके घर पात्र भोजनकर संयम निमित्त शरीरको राखें कर्म के खिपावेको उद्यमी एक दिन वे धीरबीर महाशांति भावके धारक जूडा प्रमाण धरती देख बिहार कर ईर्ष्या समति के पालनहारे आहार के समय आयोध्या आये शुद्ध भिक्षा के लेनहारे प्रलंबित हैं महा सुजा जिनकी दत्त सेठ के घर आये प्राप्त भए तव अदत्तने बिचारी वर्षाकाल में मुनिका बिहार नहीं ये चौमासा पहिलि तो यहां आये नहीं और मैं यहां जे जे साधु विराजे हैं गुफा में नबके तीर वृक्ष तले शून्य स्थानके विषे बनके चैत्यालयों में जहां जहां चौमासी साधु तिष्ठे हैं वे में सर्व वंदे यह तो अबतक देखे नहीं ये आचांग सूत्रकी आज्ञासे परामुख इच्छा बिहारी हैं वर्षाकाल में भी भ्रमते फिरे हैं जिन श्राज्ञा पराङ्मुख ज्ञान रहित निराचारी आचार्यकी आम्नायसे रहित हैं जिन द्याज्ञा पालक होय तो वर्षा में बिहार क्यों करें, सो यहतो उठ गया और इसके पुत्रकी बधूने प्रति भक्तिकर प्राशुक आहार दिया सो मुनि आहार लेय भगवान के चैत्यालय आये जहां द्युतिभहारक विराजते थे ये सप्तर्षि ऋद्धि के प्रभावकर धरती से चार अंगुल अलिप्त चले आये और चैत्यालय में धरतीपर पग धरते आये आचार्य उठ खड़े भये For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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