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पद्म
पुरा
यह वार्ता अचल कुमारकी माताने जानी तब पुत्रको भगाय दिया सो तिलक बनमें उसके पाव में कांटा ६३॥ लगा सो कंपका पुत्र आप काष्टका भरा लेकर श्रावे यासो अचलकुमारको कांटेके दुखसे करुणावन्त देखा
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तब अपने काष्ठका भार मेल छूरीसे कुमारका कांटा काढ़ कुमारको दिखायासो कुमार अति प्रसन्न भया
आपको कहा तू मेरा अचलकुमार नाम याद रखियो और मुझे भूपति सुने वहां मेरे निकट आइयो इस भांति कह अपको बिदा किया सो अप गया और राजपुत्र महादुखी कौशांबी नगरीके विषे आया महापराक्रमी सो बाणविद्याका गुरुजो विशिषाचार्य उसेजीतकर प्रतिष्ठा पाई सोराजाने अचलकुमारको नगर में ल्यायकर अपनी इन्द्रदत्ता नाम पुत्री पराई अनुक्रमकर पुण्य के प्रभावसे राजपाया सो गदेश आदि अनेक देशों को जीतकर महाप्रतापी मथुरा श्राया नगरके बाहिर डेरा दिये बडी सेना साथ सब सामन्तों ने सुनी कि यह राजा चन्द्रभद्रकापुत्र अचलकुमार है सो सब प्राय मिले राजा चन्द्रभद्र अकेला रहगया तबराणी धराके भाइ सूर्यदेव अग्निदेव यमुनादेव इनको संधि करने भेजे सोये जायकर कुमार को देख बिलस्ने होय भागे और घराके उपुत्र भी भाग गए अचलकुमारकी माता श्राय पुत्रको लेगई पिता से मिलाय पिताने इसको राज्य दिया एकदिन राजा अचलकुमार नटों का नृत देखेथा उससमय पाया जिसने इसका वननें कांटा काढाथा सो उसे दरवान धक्का देयकाढे थे सो राजाने मनेकिए और अपको बुलाया बहुत कृपा करी और जो उसकी जन्मभूमि श्रावस्ती नगरीथी सो उसे दई और ये दोनों परममित्र भेलेही रहें एकदिवस महासंपदा के भरे उद्यान में कीड़ा को गयेथे सो यशसमुद्र चाचार्य को देख कर दोनों मित्र मुनिभये सम्यकदृष्टि परम संयमको प्राराव समाधिमरण कर स्वर्ग विषे उत्कृष्ट देवभये वहां
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