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पद्म
धुराक
की अप्सरा मधु का संग्राम देखनेको पाई थी आकाश से कल्पवृक्षों के पुष्पों की वर्षा करती भई मघ का । वीर रस और शांत रस देख देव भी आश्चर्य को प्राप्त भए फिर मधु महा धीर एक क्षणमात्र में समाधि । मरण कर महासुखके सागर में तीजे सनत कुमार स्वर्ग में उत्कृष्ट देव भया, और शत्रुघ्नमधु की स्तुति करता महा विवेकी मथ रामें प्रवेशकरता भया जैसे हस्तिनागपुर में जयकुमार प्रवेश करता सोहता भया तैसा शत्रुघन मधुपुरी में प्रवेश करता सोहता भया, गौतमस्वामी राजाश्रेणिक से कहे हे हे नराधिपति प्राणियों के इस संसार में कर्मों के प्रसंग कर नाना अवस्था होय हैं इसलिये उत्तमजन सदा अशुभ कर्म तज' कर शभकर्म करो जिसके प्रभाव कर सूर्य मसानकांतकोप्राप्तहोवो ॥ इति नवासीवांपर्व पूर्णभया ॥ __अथानन्तर सुरकुमारों के इन्द्र जो चमरेन्द्र महाप्रचंड तिन का दीया जो त्रिशूलरत्न मधु के था उसके अधिष्ठाता देव त्रिशूल को लेकर चमरेन्द्र के पास गए, अतिखेद खिन्न महा लज्जावान होय मधु के मरण का वृतांत असुरेन्द्रसे कहते भए तिनकी मधुसे अति मित्रता सो पातालसे निकस कर महाक्रोधक भरे मथुरा प्रायवेको उद्यमी भए उस समय गरुडेन्द्र निकट अाए कि है दैत्येन्द्र कौन तरफगमन को उद्यमी भए हो तब चमरेन्द्र ने कही जिसने मेरा मित्र मधु मारा है उसेकष्ट देवेको उद्यमी भया हूं तब गरुडेन्द्र ने कही क्या विशिल्या का महात्म्य तुमने न सुनाहै तब चमरेन्द्र ने कही वह अद्भुत अवस्था विशिल्याकी कुमार अवस्था में ही थी और अब तो निर्विषभुजंगी समान है जौंलग विशिल्याने वासुदेव का श्राश्रय न किया था तोलग ब्रह्मचर्य के प्रसाद से असाधारण शक्ति थी, अब वह शक्ति विशिल्या में नहीं जे। निरतिवारवाल ब्रह्मचर्य धारे तिनके गुणों की महिमा कहिवे में नावे, शील के प्रसाद कर सुर असुर ।
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