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पुराण कारी अनुचर हूँ तब रामने कहा, हे वत्स तुम चक्र के धारा नारायण हो इसलिये राज्याभिषेक तुम्हाराही ।
योग्य है, सो इत्यादि वार्तालाप से दोनों का राज्याभिषेक ठहरा फिर जैसी मेघ की ध्वनि होय तैसी बादित्रों की ध्वनि होती भई दुन्दुभी वाजे नगारे ढोल मृदंग वीण तमूरे झालरझांझ मजीरे बांसुरीशंख इत्यादि बादित्र वाजे और नानाप्रकार के मंगल गीत नृत्य होते भए, याचकों को मनवांछित दानदीए सवों को अति हर्ष भया दोनों भाई एक सिंहासन पर विराजे स्वर्ण रनो के कलश जिनके मुख कमलोंमे ढके पवित्र जलसे भरेतिनकर विधि पूर्वक अभिषेक भया, दोनों भाई मुकट भजबन्ध हारकंदर कुण्डलादिक कर मण्डित मनोग्य वस्तुपाहरे सुगन्धकर चर्चित तिष्ठ विद्याधर भूमिगोचरी तथा तीन खरड़के देव जय जय शब्द कर कहते भए यह बलभद्र श्रीराम हलमसल के धारक और यह वासुदेव श्रीलक्ष्मण चक्रक धारक जयवन्त होवे दोनों राजेन्द्रीकाअभिषेक कर विद्याधर बड़े उत्साहसे सीता और विशल्याका अभि । षेक करावते भए, सीता रामकी राणी और विशिल्या लक्ष्मणकी तिनका अभिषेक विधि पूर्वक होता भया।
अथानन्तर विभीषणको लंका दई सुग्रीवकोकिहकंधापुर हनूमानको श्रीनगर और हनूरुह द्वीप दिया। विराधितको नागलोक समान अलंकापुर दिया, नलनीलको किकंधूपुर दिया समुद्रकी लहरोंके समूह कर महाकौतुक रूप और भामंडलको बैताडकी दक्षिणश्रेणी विषे रथनूपुर दिया समस्त विद्याधरोंका अधिपति किया और रत्नजटीको देवोपुनीत नगर दिया औरभी यथा योग्य सबों को स्थान दिये। अपने पुरयके उदय योग्य सबही रामलक्षमण के प्रतापसे राज्य पावते भए। रामकी प्राशकर यथा । योग्य स्थानको तिष्ठे । जे भन्यजीव पुण्य के प्रभावका जगतमें प्रसिद्ध फल जान धर्म में रति करे हैं वे मनुष्य सूर्य से अधिक ज्योति को पाये हैं ॥ इति अठासीवां पर्व संपूर्णम् ॥
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