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पद्म
राख
८३६०
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ज्ञानी सर्व लोक के हितु तिन्हों ने राजा से कही तेरा दादा सर्प भया सो तपस्वियों के काष्ठ मध्य तिष्ठे है सो तापसी का विदारेंगे सो तू रक्षाकरियो तब यह वहां गया जो मुनिने कही थी त्योंही दृष्टि पड़ी इसने सर्प बचाया और तापसियों का मार्ग हिंसा रूप जाना तिन से उदास भया मुनिम्रत धरिये का उद्यम किया तब श्रुतिरति पुरोहित पापकर्मीने कही हे राजन् तुम्हारे कुल विषे वेदोक्त धर्म चला श्राया है और तापसही तुम्हारे गुरू हैं इसलिये तू राजा हरिपतिका पुत्रहै तो वेदमार्ग का ही आचरण कर जिनमार्ग मत चावरे पुत्रको राज्यदेय वेदोक्त विधिकर तू तापस का व्रतधर मैं तेरे साथ तप धरूंगा, इस भांति पापी पुरोहित मूढमति ने कुलंकर का मन जिनशासनसे फेरा और कुलंकर की स्त्री श्रीदामा सो पापिनी परपुरुषा सक्त उसने विचारी कि मेरी कुक्रिया राजाने जानी इस लियतप धारे हैं सो न जानिये तपधरे कै न घरे कदाचित मोहिमारे इसलिये मैंही उसे मारूं तब उसने विषदेयकर राजा और पुरोहित दोनों मारे सो मरकर निकुञ्जया नामा वन विषे पशुघात के पाप से दोनों सुखा भये फिर मीडकभये मूसा भए मोरभए सर्प भए कूकरभये कर्मरूपपवन के प्रेरे तिर्यंचयोनि में भ्रमे फिर पुरोहित श्रुति रतिका जीवहस्त भया और राजा कुलंकरका जीव मीडक भया सोहाथी के पगतले दबकर मुवा, फिर मींडकभयास सूकेसरोवर में कागनेभपा सो कूकड़ाभया हाथीमर माजर भया उसने कुक्कुट भषा कुलंकरका जीव तीनजन्म कूकड़ा भयासो पुरोहित के जी मारनेभपा फिरये दोनों मुसामार्जार मच्छभए सो झीवर ने जाल में पकडे कुहाडेन से काटे सो मुवे दोनों मरकर राजग्रही नगर विषे वव्हासनामा ब्राह्मण उसकी उल्का नाम स्त्री के पुत्रभये पुरोहित के जीवकानाम विनोद राजाकुलंकर के जीव का नाम रमण सो महादरिद्री और विद्या रहित तबरमण ने
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