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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुराण 119॥ ही जीवनेको इच्छे हैं मरनेको कोई भी न इच्छे बहुत कहनेकर क्या जैसे श्रापको अपने प्राण प्यारे हैं तैसेही सबको प्यारे हैं इसलिये जो मूरख पर जीवोंके प्राण हरें हैं ते दुष्टकर्मी नरकमें पड़ें हैं उन समान कोऊ पापी नहीं यह जीव जीवोंके प्राण हर अनेक जन्म कुगतिमें दुःख पावें हैं जैसे लोहका पिण्ड पानी में डूब जाय है तैसे हिंसक जीवन का मन भवसागरमें डूबे हैं जे वचनकर मीठे बोल बोले हैं और हृदय में विपके भरे है इंद्रियों के वश होकर मलीन हैं भले आचारसे रहित स्वेच्छाचारी काम के सेवन हारे, ते नरक तिर्यच गतिमें भ्रमण करे हैं प्रथम तो इस संसार में जीवोंको मनुष्य देह दुर्लभ है फिर उत्तम कुल आर्याक्षेत्र सुन्दरता धनकर पूर्णता विद्या का समागम तत्व का जानना धर्म का आचरण यह अति दुर्लभ है धर्म के प्रसाद से के एकतो सिद्ध पद पावे हैं कैएक स्वर्ग लोक में सुख पाकर परम्पराय मोक्ष को जाय हैं और कई एक मिथ्या दृष्टि अज्ञान तप कर देव होय स्थावर योनि में प्राय पड़े हैं कईएक पशु होय हैं कई एक मनुष्य जन्म में श्रावे हैं माता का गर्भ मल मूत्रकर भराई कृमियों के समूह करपूर्ण है महा दुर्गंध अत्यन्त दुस्सह उसमें पित्त श्लेष्म के मध्य चर्मके जालमें ढके यह प्राणी जननीके आहार का जो रस ताहि चाटें हैं जिनके सर्व अंग सकुच रहे हैं दुःख के भार कर पीड़े नव महीना उदरमें बसकर योनि के द्वार से निक से हैं मनुष्य देह पाय पापी धर्मको भूलै हैं मनुष्यदेह सर्व योनियोंमें उत्तमह मिथ्या दृष्टि नेम धर्म प्राचार वर्जित पापी विषयोंको सेवे हैं जे ज्ञान रहित कामके वश पड़े स्त्री के वशी होय हैं ते महा दुःख भोगतेहुये संसार समुद्रमें डूबे हैं इसलिये विषय कषाय न सेवने हिंसाका वचन जिसमें पर | जीव को पीड़ा होय सोन बोलना हिंसाही संसारका कारणहै चोरी न करना सांच बोलना स्त्रीकी सङ्गति For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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