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पद्म पुर
२६.
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निवास सन्ध्याके उद्योत समान विनश्वर और यह शरीररूपो यन्त्र नाना व्याधिके समूहका घर पिता के बीर्य माता के रुधिर से उपजा इसविषे कहां रति, जैसे इन्धन कर अग्नि तृप्त न होय और समुद्र जल से तृप्त न होय तैसे जीव इन्द्रीयों के विषयों कर तृप्त न होय यह विषय अनादि से अनन्तकाल सेवे परन्तु तृप्तिकारी नहीं यह मूढ़ जीव काम में आसक्त अपना भलाबुरा न जाने पतंग समान विषय रूप अग्नि में पड़ पापी महाभयंकर दुःख को प्राप्त होय यह स्त्रियों के कुच मांस के पिण्ड महावीभत्स गलगंड समान तिन में कहां रति, और स्त्रियों का मुख रूप विल दंतरूप कीड़ों कर भरा तांबूल के रस कर लाल छुरी के घाव समान उसमें कहां शोभा और स्त्रियोंकी चेष्टा वायुविकार समान विरूप उन्माद कर उपजी उसमें कहां प्रीति और भोग रोग समान हैं महा खेद रूप दुःख के निवास इन में कहां बिलास और यह गीत वादित्रों के नाद रुदन समान तिन में कहां प्रीति, रुदन कर भी महल गुमट गाजें और गान कर भी गाजें । नारियों का शरीर मल मूत्रादि कर पूर्ण चर्म कर वेष्टित इस के सेवन में कहां सुख होय विटा के कुम्भ तिनका संयोग अतिवीभत्स प्रति लज्जा कारी महा दुःखरूप नारियों के भोग उन में मूढ़ सुख माने देवों के भोग इच्छा मात्र उत्पन्न तिन कर भी जीव तृप्त न भया तो मनुष्यों के भोगों कर कहाँ तृप्त होय, जैसे डाभकी अणीपर श्रीसकी बूंद जो उसकर कहां तृषा बुझे और जैसे इंधन का
नहारा सिर पर भार लाय दुखी होय तैसे राज्यके भार का घरणहारा दुखी होय, हमारे बड़ों में एक राजा सौदास उत्तम भोजन कर तृप्त न भया और पापी अभक्ष्य का आहार कर राज्य भ्रष्ट भया जैसे गंगा के प्रवाह में मांस का लोभी काग मृतक हाथी के शरीर को चूथता तृप्त न भया समुद्र में डूब
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