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नारी करते गए और वापर महाचतुर याय कर रत्न स्वर्ण मई मन्दिर नाम और भगवान् के त्यालय महामनोग्य ने बनाये मानों विन्ध्याचल के शिखर ही हैं। हजारों स्तम्भों कर मंडित नाना प्रकार के मंडप रचे और रत्नों कर जडित उन के द्वार रचे जिन मंदिरों पर वक्ताओं की पंक्ति छहरें हैं तोयों के समूह तिन कर शोभायमान जिनमंदिर रूपें गिरों के शिखर समान ऊंचे तिन में यहा उत्सव होते गए कार्य कर भरी अयोध्या होती मई लंका की शोभा को जीतनारा संगीत की धनी कर दशों दिशा शब्दायमान भई कारी घटासमान वन उपवन सहोते अए जिन में नाना प्रकार के फल फूल तिन परभ्रमर गुंजार कर हैं समस्त दिशावों विषे वन उपवन ऐसे सोते भए म नन्दनवन ही है अयोध्या नगरी वारयोजन लम्बी नव योजन चौड़ी प्रतिशोआयमान मालती भई सोलह दिन में विद्यावर शिलावटों ने ऐसीबनाई जिसका सौ वर्ष तक वर्णनभी नकीया जाय जहां वापीयों के रत्न स्वर्णके सिवान और सरोवरों के रत्नके तट जिनमें कमल फूल रहे हैं ग्रीष्मविष सदा भरपूर ही रहे जिनके तट भगवान के मंदिर और वृक्षों की पंक्ति प्रति शोभा को घरे स्वर्गपुरी समान नगरी सो बलभद्र नारायण लंका से श्रवोध्या की ओरगमनको उद्यमी भए गौतम स्वामी कहे हैं। हे कि जिस दिन से नारद के मुख से राम लक्ष्मणने माताओं की वार्तामुनीउसी दिन से सब बात भूल गए दोनों माता का ध्यान करते भये पूर्व जन्म के पुण्य कर ऐसे पुत्र पाइए पुण्य के प्रभावकर सर्व वस्तुकी सिद्धि होवे है पुण्यकर क्या न होय इसलिये हे प्राणीही पुण्य में तत्पर होवो जिसकर शोकरूप सूर्यका आताप न होय ॥ इति इक्यासीवां पर्व संपूर्ण ॥
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