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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुरात 49COLL द्रव्य हरे हैं पर स्त्रीका सेवन करे हे प्रमाण रहित परिग्रहको अंगीकार करे हैं बढा है महालोभ जिनके वे कैसे हैं महा निन्यकर्म कर शरीर तज अधोलोक विषे जाय हें वहां महा दुखके कारण सप्त नस्क तिनके नाम रत्नप्रभा, शर्करा, वालुका, पंकप्रभा धमप्रभा, तम महातम सदा महा दुःख के कारण सप्न नस्क अन्धकार कर युक्त दुर्गंध सूघा नाजावे देखा न जाय स्पर्शान जाय महाभयंकर महा विकराल है भूमि जिनकी सदा रुदन दुर्वचन त्रासनानाप्रकार के छेदन भेदन तिनकर सदा पीड़ित नारकी खोटे कर्मसे पापबन्ध कर बहुत काल सागरों पर्यंतमहा तीब्रदुख भोगवे हैं ऐसा जान पण्डित विवेकी पापन्धसे रहितहोय धर्मम चित्त घरो। कैसे हैं विवेकी बत नियमके धरणहारे निःकपटस्वभाव अनेक गुणोंकर मंडित वे नानाप्रकारक तपकर स्वर्ग लोकको प्राप्त होय हे फिर मनुष्य देह पाय मोक्ष प्राप्त होय हैं और जे धर्मकी अभिलाषासे रहित हैं.बे कल्याणके मार्ग से रहित बारम्बार जन्म मरण करते महादुखी संसारमें भ्रमण करे हैं जे भव्यजीव सर्वज्ञ वीतरागके क्चन कर धर्म में तिष्ठे हैं वे मोक्षमार्गी शील सत्य शोच सम्यगदर्शनज्ञान चारित्रकर जवलग अष्ट कर्मका नाश न करें तबलग इन्द्र अहमिंद्र पदके उत्तम सुखको भोगवे हैं नानाप्रकारके अद्भुतसुख भोग वहां से चय कर महाराजाधिराज होय फिर ज्ञान पाय जिनमुद्राधरमहातफ्कर केवलज्ञानउपाय अंष्ट कर्म रहित सिद्धहोय हैं, अनन्तप्रक्निाशीअात्मिकस्वभावमयीपरमानंद भोगवे हैं यहव्याख्यान सुन इन्द्रजीत मेघनाद अपनेपूर्वभव पूछते भए सो केवलीकहेहें एक कौशांबी नामा नगरी वहां दो भाई दलिद्रीएकका नामप्रथम दूजे का नाम पश्चिम एकदिनविहार करते भवदत्तनामा मुनिवहां आये सो ये दोनोंभाईधर्मश्रवण । कर ग्यारमी प्रतिमा के धारक क्षुल्लक श्रावकभएसो मुनिकेदर्शनको कौशांबीनगरीका राजाइन्द्रनाम राजा । ALL For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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