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पुराम ७८६.
का भी विश्वास नहीं है जो कदाचित् भाई भतीजों को निर्धन देख भाईको वैर चितारे सो इसको विकार | उपज आवे भाई के दुःख से बहुत तप्तायमान है यह विचार भामंडलादिक तिन को अति यत्न से राम लक्षमण के निकट लाए सो वे महाविरक्त राग द्वेष रहित जिनके मुनि होयवे के भाव महा सौम्य दृष्टिकर भूमि निरखते आवें शुभ हैं अानन जिन के वे महा धीर यह विचारे हैं कि इस असार संसार सागर में कोई सारता का लवलेश नहीं एक धर्मही सर्व जीवनका बांधव है सोई सारहे ये मनमें विचारे हैं जो आज बंधन से छटे तो दिगम्बर होय प्राणिपात्र आहार करे यह प्रतिज्ञा धरते राम के समीप
आए इन्द्रजीत कुम्भवार्णादिक विभीषण की ओर पाए तिष्ठे यथा योग्य परस्पर संभाषण किया फिर कुम्भकर्णादिक श्री राम लक्षमण से कहते भए अहो तुम्हारे परम धीर्य परम गंभीरता अद्भुत चेष्टा देवों कर भी न जीताजाय ऐसा राक्षसों का इन्द्र रावण मृत्युको प्राप्त किया पंडितों के प्रति श्रेष्ठ गुण का धारक शत्रभी प्रशंसा योग्य है तब श्रीराम लक्षमण इन को बहुत शंतता उपजाय अति मनोहर वचन कहते भए तुम पहिले महा भौगरूप जैसे तिष्ठते तैसे तिष्ठो तब वह महा विरक्त कहतेभये अब इन भोगों से हमारे कुछ प्रयोजन नहीं यह विषसमान महा दारुण महा मोह के कारण महा भयंकर महा नरक निगोदादि दुःखदाई जिन कर कबहूं जीव के साता नहीं जे विचक्षण हैं बे भोग सम्बन्ध को कभी! न बांछे राम लक्षमण ने घनाही कहा तथापि तिनका चित्त भोगासक्त न भया जैसे रात्रि में दृष्टि
अन्धकार रूप होय और सर्य के प्रकाश कर वही दृष्टि प्रकाश रूप होय जाय तैसेही कुम्भकर्णादिक । की दृष्टि पहिले भोगासक्त थी सो ज्ञान के प्रकाश कर भोगों से विरक्त भई श्रीरामने तिन के बन्धन
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