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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पद्म पुराण #99 सो व्यग्निके कणोंसे याकाश प्रज्वलित भया खडगका जोर चक्रपर न चला, सन्मुख तिष्ठता जो रावण महाशूरवीर राक्षसों का इन्द्र उसका चक्रने उरस्थल भेदा सो पुराय चयकर अंजनगिरिसमान रावण भूमिमें पडा, मानों स्वर्णसे देव चया, अथवा रतिका पति पृथिवी में पडा ऐसा सोहताभया मानों बीररसका स्वरूपही हैं चढ़ रही हैं मोह जिसकी इसे हैं होंठ जिसने स्वामीको पडा देख समुद्र समान था शब्द जिसका ऐसी सेना भागिवेको उद्यमी भई, ध्वजा छत्र वहे वहे फिर समस्त लोक रावण के विह्ननभए विलाप करते भागे जाय हैं कोई कहे हैं रथको दूरकर मार्ग देहु पीछेसे हाथी यावे है कोई कहे हैं विमानको एक तरफकर अरे पृथिवीका पति पडा अनर्थ भया महा भयकर कंपायमान वह उस पर पडे वह उसपर पडे तब सबको शरण रहित देख भामंडल सुग्रीव हनुमान रामकी आज्ञा से कहते भए भयमत को भय मत करो धीर्य बंधाया और वस्त्र फेरे काहूको भय नहीं तव अमृतसमान कानों की प्रिय ऐसे वचन सुन सेन को विश्वास उपजा । यह कथा गौतम गणधर राजा श्रेणिक सो कहे हैं हे राजन रावण ऐसी सहा विभूतिको भोग समुद्र पर्यन्त पृथिवीका राज्यकर पुण्यपूर्ण भए अन्तदशाको प्राप्तभया । इस | लिये ऐसी लक्ष्मीको धिक्कार है यह राज्य लक्ष्मी महा चंचल पापका स्वरूप सुकृतके समागम का शाकर वर्जित ऐसा मन में विचार कर हो बुद्धिजन हो तपही हैं धनजिनके ऐसे मुनि होवो | कैसे हैं मुनि तपोधन सर्व से अधिक है तेज जिनका मोह तिमिरको हरे हैं ।। इति बहत्तरवां पर्वसंपूर्णम् ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथानन्तर विभीषण ने बड़े भाईको पड़ा देख महा दुःख का भरा अपने घात के अर्थ हुरी विषे हाथ लगाया सो इसको मरणकी करणहारी मूर्छा आयगई चेष्टाकर रहित शरीर हो गया फिर For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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