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पद्म
तब तीनजोक के नाथ तीर्थ कर देव और चक्रायुध बलभद्र नारायण हम सारिणे विद्याधरों के कुलही में उपजेंगे ऐसा वृथा विचार करता भया हे मगधेश्वर जिस मनुष्यने जैसे संचित कर्म किए होंय तैसाही फल भोगवे ऐसे न होय तो शास्त्रोंके पाठी कैसे भूलें शास्त्र हैं सो सूर्य समान हैं उसके प्रकाश होते अन्धकार कैसे रहे परन्तु जे घूघ समान मनुष्यहैं तिनको प्रकाश न होय ॥ इतिबहत्तरमा पर्वसंपूर्णम्
अथानन्तर दूजे दिन प्रभातही रावण महा देदीप्यमान स्थान मंडप में तिष्ठा सूर्य के उदय होते हुए सभामें कबेर बरुणा ईशान यम सोम समान जे बडे २ राजा उन से सेवनीक जैसे देवोंसे मंडित
डित इन्द्र विराजे तैसे राजावों से मंडित सिंहासन पर विराजा परम कांतिको धरे जैसे ग्रहों से युक्त चन्द्रमा सोहे अत्यन्त सुगन्ध मनोग्य बस्त्र पुष्पमाला और महा मनोहर गज मोतियों के हार तिनसे शोभे है उरस्थल जिसका महा सौभाग्य रूप सौम्यदर्शन सभा को देखकर चिंता करता भया जो भाई कुम्भकर्ण इन्द्र
जीत मेघनाद यह नहीं दीखे हैं सो उन विना यह सभा सोह नहीं और पुरुष कुमुदरूप बहुत हैं पर | वे पुरुष कमल रूप नहीं सो यद्यपि रावण महा रूपवान सुन्दर बदन है और फूल रहेहैं नेत्र कमल जिसके महा मनोग्य तथापि पुत्र भाई की चिंता से कुमलाया बदन नजर श्रावता भया और महाक्रोध स्वरूप कुटिल है,भृकुटी जिसकी मानोंक्रोधका भरा आशीविष सर्पही है महाभयंकर होंठ डसे महा विकराल स्वरूप मंत्री देखकर डरे आज ऐसा कौन से कोप है यह व्याकुलता भई तब हाथजोड़ासीसभूमि में लगाय राजामय उग्र शुक लोकात सारण इत्यादि धरतीकी ओर निरषते चलायमान कुण्डल जिनके विनती करते भए हे नाथ तुम्हारे निकटवर्ती योधा सवही यह प्रार्थना करे हैं प्रसन्न होवो और कैलाश के |
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