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. भीति सो घनों के गोड़े फटे ललाट फटे दुखी भए तव उलटे तिरे सो मार्ग न पावें आगे एक रत्न मई पुराण स्त्री देखी साक्षात् स्त्रीजान उसे पूछतेभए सो क्या कहे तवमहाशंका के भरे अागे गए विहलहोय स्फटिक ॥६४५।। मणिकी भमिमें पड़े अागे शान्तिनाथके मन्दिरका शिखर नजर अाया परन्तु जायसकेंनहीं स्फटिककी भीति
प्राडा तब वह स्त्री दृष्टिपरीथी त्यों एक रत्नमई द्वारपाल दृष्टिपड़ा हेमरूप बैंतकी छड़ी जिसके हाथमें उसे कही श्रीशान्तिनाथ के मन्दिरका मार्ग बताो सो क्या बतावे तब उसे हाथ से कूटा सो कूटनहारे की अंगुरी चूर्णं होयगई फिर भागेगए जाना यह इन्द्र नीलमणि को द्वारा है शान्तिनाथ के चैत्यालयमें जाने की बुद्धि करी कुटिल हैं भाव जिनके आगे एक वचन बोलता मनुष्य देखा उसके केश पकड़े और कही तू हमारे आगे आगे चल शान्तिनाथ का मन्दिर दिखाय, जब वह अग्रगामी भया तब ये निराकुल भए श्री शान्तिनाथ के मन्दिर जाय पहुंचे पुष्पांजलि चढाय जय जय शब्द कीए स्फटिक के थम्भों के ऊपर बड़ा विस्तार देखा सो आश्चर्य को प्राप्तभए मनमें विचारते भए जैसे चक्रवर्ती के मन्दिर में जिनमन्रि होय तैसे हैं अंगद पहिलेही वाहनादिक तज भीतर गया ललाटपर दोनों हाथ धर नमस्कार कर तीन प्रदक्षिणा देय स्तोत्र पाठ करता भया सेना लारथी सो बाहिरले चौक में छाड़ी कैसा है अंगद फूल रहे हैं नेत्र जिसके रत्नों के चित्राम से मण्डल लिखा सोलह स्वप्ने का भाव देख कर नमस्कार किया मण्डिप की आदि भीति में वह धीर भगवान को नमस्कार कर शातिनाथ के मन्दिर में गया अति हर्षका भरा भगवानको वन्दना करता भया फिर देखे तो सन्मुख रावख पद्मासन धरे तिष्ठे है इन्द्र नीलमणि की किरणों के समूह समान है प्रभा जिसकी भगवान के सन्मुख कैसा बैठा है जैसे सूर्य के सन्मुख राहु बैठा होय विद्या को |
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