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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥३८॥ पद्म होय नृपकी प्राज्ञापमाण करते भए समस्त प्रजाके लोग जिनपूजामें अनुरागी होते भये और समस्त पुराण कार्य तजे मूर्यकी कांति से भी अधिक है कांति जिनकी एसे जे जिनमंदिर तिनमें तिष्ठे निर्मल भावकर युक्त संयम नियम का साधन करते भये ॥ इति उनत्तरवां पर्व समाप्तम् ॥ अथानन्तर श्री राम के कटक में हलकारों के मुख यह समाचार आए कि रावण वह रूपणी विद्या के साधने को उद्यमी भया श्री शांतिनाथ के मंदिर में विद्या साधे है चौबीस दिन में यह वह रूपणी विद्या सिद्ध होयगी यह विद्या ऐसी प्रबल है जो देवोंका भी मद हरेसोसमस्त कपिध्वजों ने यह विचार । किया कि जोवह नियममें बैठा विद्यासाघे है सो उसको क्रोध उपजावें ताकि यहविद्या सिद्ध न होय इसलिये रावणको कोप उपजावने का यत्न करना, यदि उसको विद्या सिद्ध होय तो इन्द्रादिक देवों से भी न जीता. जाय हम सारिखे रंकों की क्या बात, तब विभीषण ने कही की कोप उपजाबने का उपाय करोशीघही करो तब सब ने मन्त्र कर राम से कही कि लंका लेने का यह समय है रावणके कार्य में विघ्न करिए और अपने को जो करना होय सो करिए तब कपिध्वजों के यह वचन सुन श्री रामचन्द्र महाधीर महा पुरुषों की है चेष्टा जिनकी सो कहते भए हो विद्याधर हो तुम महामढ़ता के वचन कहो हो क्षत्रियों के कुल का यह धर्म नहीं जो ऐसे कार्य करें अपने कुल की यह रीति है जो भय से भाजे उसका बध न करना तो जे नियमधारी जिनमन्दिर में बैठे हैं तिनसे उपद्रव कैसे करिए यह नीचों के कर्म हे सो कुलवंतों को योग्य नहीं यह अन्याय प्रबृति क्षत्रियों की नहीं कैसे हैं क्षत्री महामान्यभाव और शस्त्र कर्म में प्रवीण यह वचन राम के सुन सबने विचार किया कि हमारा प्रभु श्रीराम महा धर्म धारी है उत्तम भाव For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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