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पदा
॥७३॥
अथानन्तर फाल्गुणशुदी अष्टमीसे लेय पूर्णमासी पर्यंत सिद्धिचक्रका वृत्तहै जिसे अष्टानिहका पुराग कहे हैं सो इन आठ दिनोंमें लंकाके लोग और लशकरके लोग नियम ग्रहणको उद्यमी भए सर्व सेना
के उत्तम लोक मनमें यह धारना करते भए कि यह आठ दिन धर्म के हैं सो इन दिनों में न युद्ध करें न और प्रारम्भ करें यथा शक्ति कल्याणके अर्थ भगवानकी पूजा करेंगे और उपवासादि नियम करेंगे इन दिनों में देवभी पूजा प्रभावना में तत्पर होय हैं क्षीरसागर के जे सुवर्णके कलश जलसे भरे थे तिनसे देव भगवानका अभिषेककरे हैं कैसाहै जल सत्पुरुषोंके यरासमान उज्ज्वल और औरभी जे मनुष्यादि हैं तिनको भी अपनी शक्ति प्रमाण पूजा अभिषेक करना इन्द्रादिक देव नन्दीश्वरद्वीप जायकर जिनेश्वरका अर्चनकरे हैं तो क्या ये मनुष्य अपनी शक्ति प्रमाण यहां के चैत्यालयों का पूजन न करे ? करेंही करें देव स्वर्ण रत्नोंके कलशोंसे करें हैं और मनुष्य अपनी संपदा प्रमाण करे महानिधन मनुष्य होय तो पलाश पत्रों के पुटहीसे अभिषेक करें देव रत्न स्वर्णके कमलोंमे पूजाकरें हैं निर्धन मनुष्य चित्तही रूप कमलोंसे पूजा करें हैं लंकाके लोक यह विचारकर भगवानके चैत्या लयों का उत्साह सहित ध्वजा पताकादिसे शोभित करते भए वस्त्र स्वर्ण रत्नादिकर अति शोभा करी रत्नों की रज और कनकरज तिनके मंडल मांडे और देवालयोंके द्वार प्रति सिंगारे और माण सुवर्णके कलश कमलों से ढके दधिदुग्ध घृतादिसे पुर्ण मोतियों की माला है कंठमें जिनके रत्नोंकी कांतिसे शोभित जिन बिम्बोंके अभिषेकके अर्थ भक्तिपंत लोकलाये जहां भोगी पुरुषों के घर सेंकड़ों हजारों मणिसुवोंक कलशनंदनवनके पुष्प और लंका के बनों के नाना प्रकार के पुष्प कार्ण ।
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