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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म पस 19294 और तो सारिखा मूर्ख और कौन जो विद्याधर्गे की सन्तानमें होयकर भूमिगोचरियोंका आश्रय करें । जैसे कोई दुर्बुद्धि पापकर्म के उदयसे जिन धर्म को तज मित्थ्यात्वका सेवन करें तब विभीषण बोला रावण बहुत कहनेसे क्या तेरेकल्याण की बात तुझे कहूंहूं सो सुन एती भई तोभी कुछ बिगडा नहीं जो तू अपना कल्याण चाहे है तो रामसे प्रीतिकर सीता रामको सौंप और अभिमानतज रामको प्रसन्न से स्त्री के निमित्त अपने कुलको कलंक मत लगावे अथवा तूमेरे वचन नहीं माने है सो जानिये है तेरी मृत्यु नजीक आई हैं समस्त बलवन्तों में मोह महा बलवानहै तू मोहसे उन्मतभयाहै ये बचन भाई के सुनकर रावण अतिक्रोधरूप भया तीक्ष्णबाण लेय विभीषणपर दौड़ा औरभी रथ घोडे. हाथीयों के असवार स्वामी भक्ति में तत्पर महा युद्धकरतेभए । विभीषणनेभी रावणको प्रावतादेख अर्धचन्द्र बाण से रावण की ध्वजा उडाई और रावण ने क्रोधसे बाण चलाया सो विभीषण का धनुष तोडा और हाथ से वाणा गिरा तक विभीषण नेदजा धनुष लेय बाण चलाया सो रावणका धनुष तोडा ,इसभांति दोनों भाई महायोषा परस्पर जोर से युद्ध करतेभए और अनेक सामन्तों का क्षयभया तब इन्द्रजीत महायोधा पिता भक्त पिता की पक्ष विभीषण पर आया तब उसे लक्षमणने रोका जैसे परत सागरको रोके, और श्रीरामने कुम्भकर्ण को घेरा और सिंहकटिसे नील और सम्भूसे नल और स्वयंभूसे दुर्मती और घटोदर से दुर्मुख शक्रासन से दुष्ट चन्द्रनख से काली भिन्नाजन से स्कन्ध विघ्न से विराधित और मय से अंगदः और। कुम्भकर्णका पुत्र जो कुम्भ उससे हनूमान का पुत्र और सुमालीसे सुग्रीव और केतुसे भामण्डल कामसे. दृढरथ क्षौभसे बुध इत्यादि बड़े बड़े राजा परस्परयुद्ध करतेभए और समस्तही योधा परस्पर रणरचते भए, For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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