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पुराण ॥६ ॥
तू मेरी बहिन है ऐसा कह राखी सौ यह मित्रवति सहाय रहित लज्जाकर अकीर्तिके भय थकी बापके । घर न गई अत्यन्त शीलकी भरी जिन धर्ममें तत्पर दरिद्रीकी कुटि विषे रहे सो तें भ्रमण करती देख कुभाव किया और इसका पति वन्धुदत्त रत्न कंबल देगयाथा उसमें तोहि लपेट सो सरोवरगईथी सोरत्न कम्बल राजाके घरमें है और वह बालक तू है इस भांति मुनिने कही तब यह मुनिको नमस्कारकर खडग हाथ में लिये राजा पे गया और कहता भया इस खडग कर तेरा सिर काटुंगा नातर मेरे जन्म का कृत्तांत कहो तब राजाने यथावत वृत्तन्त कहा और वह रत्न कम्बल दिखाया सो लेयकर संयुक्तथा तब यह यच दत्त अपनीमाताकुठी में तिष्ठेची उससे मिला और अपना बघुदत्त पिता उसको कुलायो महा उत्सव और महा विभवकर मण्डित माता पितासे मिला यह यचदत्तकी कथा गौतमस्वामीने राजा श्रेणिकसे कही जैसे यशदत्तको मुनिने माताका वृत्तान्त जनाया तैसे लक्षमणने सुग्रीवको प्रतिज्ञा विस्मरण होयगया | था सो जनाया सुगीव लक्षमण के संग शीघ्रही रामचन्द्र अाया नमस्कारकिया और अपने सब विद्या! घर सेवक महाकुलके उपजे कुलाए जो इसवृत्तान्तको जानतेथे और स्वामी कार्यमें तत्पर तिनको समझाय कर कहा सो सर्वेही सुनो रामने मेरा बड़ा उपकार किया अब सीताकी खबर इनको लाय दो इसलिये तुम सब दिशावोंको जागो और सीता कहां है यह खंबर लावो समस्त पृथिवी पर जलस्थल आकारा में हरो जम्बूदीप लवण समुद्र घात की खण्ड कुलाचल बन सुमेरु नानाप्रकार के विद्याघरों के नगर समस्त अस्थानक सर्वदिशा दंडो॥
अथानन्तरये सब विद्याधर सुग्रीव की आज्ञा सिरपर घर कर हर्षित भए सर्वही दिशा को शीघ्र
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