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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir E SH अपने चरण कमल से मेरा मस्तक तोड़ हाय हाय तेरी क्रीड़ा के बन में अशोक वृक्ष ही क्यों न । भया. जो तेरे चरण कमल की पगथली की घात अत्यन्त प्रशंसा योग्य सो मुझे सुलभ होती भावाथअशोक बृक्ष स्त्री के पगथली के घात से फले । हे कृशोदरी विमानके शिखर पर तिष्ठी सर्व दिशादेख में सूर्य के ऊपर आकाश में आया हूं मेरु कुलाचल और समुद्र सहित पृथिवी देख मानों काहू । सिलावटने रची है ऐसे वचन रावणने कहे तब वह महासती शीलका सुमेरु पटके अन्तर अरुचि के। अक्षर कहती भई हे अधम दूर रहो मेरे अंग का स्पर्श मत करे और ऐसे निन्द्य वचन कभी मत। कहे रे पापी अल्प आयु. कुगति गामी अपयशी तेरे यह दुराचार तुझे ही भयकारी हैं परदारा की अभिलाषा करता त महा दुःख पावेगा जैसे कोई भस्म कर दवी अग्नि पर पांव घरे तो जरे तैसे तू इन कर्मोंसे बहुतपछतावेगा तू महामोहरूप कीचसे मलिन चित्त है सो तुझे धर्मका उपदेश देना बृथा है जैसे अन्ध के निकट नृत्य करे हे क्षुद्र जे पर स्त्रीकी अभिलाषा करे हैं वे इच्छामात्रही पाप को बांधकर नरक में महा कष्टको भोगे हैं इत्यादि रुक्ष वचन सीता ने रावण से कहे तथापि कामकर हता है चित्त जिसका सो अविवेक से पीछो न भया और खरदूषणको जे मदद गएथे परम हितु शुक, हस्त प्रहस्तादिक वे खरदूषण के मूबे पीछे उदास होय लंका पाए सो रावण काहूकी ओर देखे नहीं जानकी को नानाप्रकार के वचनकर प्रसन्न करे सो वह कहां प्रसन्न होय जैसे अग्नि की ज्वाला को कोई पीय न सके और नाग के माथे की मणिको न लेयसके तैसे सीताको कोई मोह न उपजायसके फिर रावण ने हाथ जोड़ सीस निवाय नमस्कार कर नानाप्रकार के दीनताके बचन कहे सो सीताने इस For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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