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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥६०३॥ रावण सों कहता भया हे पापी दुष्ट विद्याधर ऐसा अपराध कर कहां जायगा यहभामण्डल की बहन रामदेव की गणी है मैं भामंडल का सेवक हूं हे दुर्बुद्धि जिया चाहे तो इसे छोड तबरावण अति क्रोध कर युद्ध को उद्यमी भया फिर विचारी कदाचित युद्धके होते अति विह्वल जो सीतासोमरजावतोभला नहीं इस लिये यद्यपि यह विद्याधर रंक है तथापि उपाय से मारना ऐसाविचार रावण महाबलीने रत्न जटी की विद्याहर लीनी सो रत्नजटी आकाश से पृथिर्वापर पड़ा मन्त्रके प्रभावसे धीरा रस्फुलिंगेकीन्याई समुद्र के मध्य कंपद्वीपमें श्राय पड़ा आयुकर्मके योग्यस जीवता वचाजैसे बणिक काजहाजफटजाय और जीवता बचे सो रत्नजटी विद्याखोय जीवता बचासो विद्या तो जातीरही जिसकर विमान में वैठ घर पहुंचे सो अत्यन्त स्वासलेता कम्बूपर्वतपर चढदिशाका अवलोकन करताभया समुद्रकी शीतल पवनकर खेद मिटा सो बनफल खाय कम्बूपर्वतपर रहे और जेविरधितके सेवक विद्याधर सब दिशाको नानाभेषकर दौड़े थे वे सीताको न देख पीछे आये सोउनका मलिन मुख देखरामने जानी सीता इनकी दृष्टिनआई तब राम दीर्घ स्वांस नांख कहते भए हे भले विद्याधर हो तुमने हमारे कार्य के अर्थ अपनी शक्ति प्रमाण अति यत्न किया परन्तुहमारे अशुभ का उदय इस लिए अबतुम सुखसे अपने स्थानक जावो हाथ से बड़वानल में गया रत्न फिर कहां दीखे कर्म का फल है सो अवश्य भोगना हमारा तुम्हारा निवारान निवरे हम कुटम्बसे छूटे बनमें पैठेतोभी कर्मशत्रुको दयान उपजी इसलिये हमनेजानी हमारे असोता का उदय है सीता भी गई इससमान और दुखक्या होयगा इसभान्ति कहकर राम रोक्नेलगे, महाधीर नरों के अधिपति तब बिराधित धीर्य बंबायवे विषे पंडित नमस्कार कर हाथ जोड़ कहतो भया हे देव आप एता विषाद क्यों For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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