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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ।।५८ पर दुर्लभ मनुष्यकी देह महापुण्य कर्मकर पाई उसे वृया खोवे सो फिर कब पावे और त्रैलोक्य में दुर्लभ महारत्न ताहि समुद्र में डारे फिर कहां पावे तैसे बनितारूप अमृत मेरेहाथसे गया फिर कोन उपायसे । पाइये इस निर्जन बनमें कौनको दोषदू में उसे तजकर भाईपे गया सो कदात्रित कौपकर नार्याभई। होय इस अरण्य बनमें मनुष्य नहीं कौनको जाय पूड़े जो हमको स्त्रीकी वार्ता कहे ऐसा कोई इसलोक। में दयावान श्रेष्ठ पुरुषहै जो मुझे सीता दिखावे वह महासती शीलवन्ती सर्व पापरहित मेरेहृदयको। बल्लभ मेरा मनरूप मंदिर उसके बिरहरूप अग्निसे जरे है सो उम्रकी बार्ता रूप जलके दानकर कौन । बुझावे ऐसा कहकर परम उदास धरती की और है दृष्टि जिनकी बारम्बार कछु इक विचारकर निश्चल । होय तिष्ठे एक चकवीका शब्द निकटही सुना सो सुनकर उसकी भोर निरखा फिर विचारी इसगिरि । का तट अत्यंतसुगंधहोय रहाहै सों इसही और गई होय अथवा यह कमलोंका बनहै यहां कौतूहलके । अर्थ गईहोय आगे इसने यह बन देखाथा सो स्थानक मनोहरहै नानाप्रकारके पुष्पोंकर पूर्णहै कदाचित वहां तणमात्र गईहोय सो यह विचार श्राप वहां गए वहांभी सीताको न देखा चकवी देखा तब बिचारी वह पतिव्रता मेरेबिना अकेली कहां जाय फिर ब्याकुलताको प्राप्तहोय जायकर पर्वतसे पूछते । भए । हे गिरिराज तू अनेकधातुओंसे भराहै मैं राजा दशरथका पुत्र रामचन्द्र तुझे पूछूई कमल सारिखेनेत्र। जिसके सोसीतामेरे मनकी प्यारी हंसगामिनी सुन्दर रत्नोंके भारसे नमीभृतहै अंग जिसका किंदूरीसमान अंधर मुन्दर नितंबसो तुमकहूं देखीवहकहांहै तब पहाडक्या जवाबदेय इनके शब्दसे गूंजा। तव श्राप | जानी कछु इसने शब्द कहा जानिएहै इसने न देखी वह महासती काल प्राप्तभई यह नदी प्रचंड तरंगों MEDIAS For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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