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पद्य जैसे क्छड़े विना गाय विलापकरे तैसे शोककरती भई झरे हैं नेत्रोंसे आंसू जिसकेसोविलाप करतीपतिने । Favonदेखी नष्ट भयाहै धीर्य जिसका और धूरकर धूसरा है अंग जिसका बिखर रहे हैं केशों के समूह जिसके
और शिथिल होय रही है कटी मेखला जिसकी और नखोंसे विदारी है वक्षस्थल कुच और जंघा जिस की सो रुधिरसे प्रारक्त है और आवरण रहित लावण्यता रहित और फट गई है चोली जिसकी जैसे माते हाथीने कमलनीको दलमली होय तैसी इसे देख पति धीर्य बन्धाय पूछताभया हे कांते कौन दुष्ट ने तू ऐसी अवस्थाको प्राप्तकरी सो कहो वह कौन है जिसे आज पाठवां चन्द्रमा है अथवा मरण उसके। निकट ओयाहै वह मूढ़ पहाड़ के शिखरपर चढ़ सोवे है सूर्य से क्रीड़ा करे है अन्धकूपमें पड़े है दैव उससे रूसा है मेरी क्रोध रूप अग्निमें पतंगकी नाई पड़ेगा धिक्कार उस पापी अविवेकीको वह पशुसमान अपवित्र अनीती यह लोक परलोक भ्रष्टे जिसने तू दुखाईतूबडवानलकी शिखा समानहै रुदन मतकर और । स्त्रियोंसारखी तू नहीं बड़े वंशकी पुत्री बड़े घर परणी आई है अबही उस दुराचारी को हस्त तले हण परलोक । को प्राप्त करूंगा जैसे सिंह उनमत्तहाथीको हणे इसभांति जब पतिने कही तब चन्द्रनखा महा कष्ट थकी रुदन तज गद गद वाणीसे कहतीभई जुलफोंकर श्राछादित हैं कपोल जिसकी हे नाथ में पुत्रके देखने को बनमें नित्य जातीथी सो अाज पुत्रका मस्तक कटा भूमिमें पड़ा देखा और रुधिरकी धारा कर बांसों का बीड़ा पारक्त देखा किसी पापी ने मेरे पुत्र को मार खडग रत्न लिया कैसा है खडग देवोंकर सेवने
योग्य सो में अनेक दुखोंका भाजन भाग्य रहित पुत्रका मस्तक गोदमें लेय विलाप कस्तीभई सोजिस | पापीने संबक को माराथा उसने मुझसे अनीति विचारी भुजावोंसे पकड़ी में कही मुझे छोड़ सो पापी
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