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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पन पुरास परलोकको प्राप्त भया विचारा कुछ और ही था और भया कुछ और ही यह बात बिचार में नथी सोभई ME हे पुत्र जो तू जीवता और सूर्यहास खडग सिद्ध होता तो जैसे चंद्रहास के धारक रावण केसन्मुख कोई नहीं प्राय सके है तैसे तेरे सन्मुख कोई नहीं प्राय सकता मानों चंद्रहास ने मेरे भाई के हाथ में स्थानक किया सो अपना विरोधी सूर्यहास ताहि तेर हाथ में न देख सका भयानक बन में अकेला निर्दोष नियम का धारी उसे मारने को जिसके हाथ चले सो ऐसापापी खोटावैरी कौन है जिस दुष्टने तुझे हताअब वहकहां जीवता जायगा इसति बिलाप करती पुत्रका मस्तक गोदमेंलेय चूमतीभई मूगा समान आरक्त हैं नेत्र जिसके फिरशोक तज क्रोधरूप होय शत्रु के मारने को दौड़ी सो चली चली वहां पाई जहां दोनों भाई विराजें थे दोनों महारूपवान मनमोहिबे के कारण तिनको देख इसका प्रवल क्रोध जातारहा, तत्काल राग उपजा मनमें चितवती भई इन दोनों में जो मुझे इच्छे ताहिं में से यह विचार तत्काल कामातुर भई । जैसे कमलों के बन में हंसनी मोहित होय और महाहृदयमें भैंस अनुरागिनी होय और हरे धान के खेत में । हिरणी अभिलाषिणी होय तैसे इनमें यह आसक्त भई सो एक पुन्नागवृक्ष के नीचे बैठी रुदन करे अतिदीन शब्द उचारे बनकी रजकर धूसरा होयरहा है अंग जिसका उसे देखकर रोमकी रमणी सीता अति दयालुचित्त उठकर उसके समीप बाय कहती भई । तू शोकमत कर हाथ पकड़ उसे शुभ वचन कह धीर्य बन्धाय रामके निकट लाई तब राम उसे कहते भए तू कौन है यह दुष्ट जीवों का भरा बन इसमें अकेली क्यों विचरे है तब वह कमल सरीखे हैं नेत्र जिसके और भ्रमर की गुजार समान वचनजिसके || सो कहती भई हे पुरुषोत्तम मेरी माता तो मरणको प्राप्तभई सो मोको गम्य नहीं में बालक थी फिर उसके - For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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