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पुरावा
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तच अष्ट प्रातिहार्य प्रगटे प्रथमतो थाप के शरीकी कांतिका ऐसा मण्डल हुआ जिससे चन्द्र सूर्यादिक का प्रकाश मन्द नजर आवे रात्रि दिवसका भेद नजर न आवे और अशोक वृक्ष रत्नमई पुष्पोंसे शोभित रक्त हैं पल्लव जिनके और आकाश से देवों ने फूलोंकी वर्षा करी जिनकी सुगन्धसे भ्रमर गुंजार करें महा दुन्दुभी बाकी ध्वनि होती भई जो समुद्र के शब्द से भी अधिक थी देवोंने बाजे बजाए उनका शरीर मायामई नहीं दीखता है जैसा शरीर देवों का है तैसाही दीखे है, ओर चन्द्रमाकी किरण से भी अधिक उज्ज्वल चमर इन्द्रादिक ढोरते भए और सुमेरु के शिखर तुल्य पृथिवीका मुकट सिंहासन आपके विरा जने को प्रकट भया, कैसा है सिंहासन अपनी ज्योति कर जीती है सूर्यादिक की ज्योति जिसने और तीन लोक की प्रभुता के चिन्ह मोतियों की झालर से शोभायमान तीन छत्र अति शोभे हैं मानी भग बानू के निर्मल यशही हैं और समोशरणमें भगवान सिंहासनपर विराजे सो समीशरणकी शोभा कहने को केवली ही समर्थ हैं और नहीं । चतुरनिकाय के देव सर्वही बन्दना करनेको आए, भगवान के मुख्य गणधर बृषभसेन भये आपके द्वितीय पुत्र और भी बहुत जे मुनि भएथे वह महा बैराग्य के धारण हारे. मुनि आदि बारह सभा के प्राणी अपने अपने स्थानक में बैठे ।
अथानन्तर भगवानकी दिव्य ध्वनि होती भई जो अपने नादकर दुन्दुभी बाजोंकी ध्वनिको जीते है, भगवान जीवों के कल्याण निमित्त तत्त्वार्थ का कथन करते भये कि तीन लोकमें जीवोंको धर्मही परम शरण है इसही से परम सुख होय है, सुखके अर्थ सभी चेष्टा करे हैं और सुख धर्म के निमित्त से aat है ऐसा कर धर्म का यत्न करो। जैसे मेघ बिना वर्षा नहीं बीज बिना धान्य नहीं तैसे
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