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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रय कहता भया हे भव्योत्तम तुम मुनियों की भक्ति करी सो में अति प्रसन्न भया ये मेरे पूर्व भव के पुत्र हैं जो तुम मांगो सो में देहुं तब श्रीरघुनाथ क्षण एक विचार कर बोले तुम देवन के स्वामी हो कभी हमपै अोपदा परे तो चितारियो साधुवोंकी सेवाके प्रसादसे यह फल भयाजो तुम सारिखोंसे मिलाप भया दब गरुडेन्द्रनेकही तुम्हारा वचन में प्रमाण किया जब तुमको कार्य पड़ेगा तब मैं तुम्हारे निकटहीहूं ऐसा कहा तब अनेक देव मेघकी ध्वनि समान वादित्रोंके नाद करतेभये साधुवोंके पूर्वभव सुन कईएक उत्तम मनुष्य मुनिभये कई एक श्रावकके व्रत धारतेभए वे देशभूषण कुलभूषण केवली जगत् पूज्य सर्व संसार के दुःखसेरहित नगर ग्राम पर्वतादि सर्व स्थानमें विहारकर धर्मका उपदेश देतेभये यह दोनों केवलियों के पूर्व भवका चरित्र जे निर्मल स्वभाव के धारक भव्यजीव श्रवण करें ये सूर्य समान तेजस्वी पाप रूप तिमिरको शीघ्रही हरें।। इति श्रीउनतालीसवां पर्व संपूर्णम् ॥ - अथानन्तर केवली के मुख से समचन्द को चरम शरीरी कहिये तद्भव मोक्षगामी सुतकर सकल राजा जय जय शब्द कहकर प्रणाम करतेभये और वंशस्थलपुरका राजा सुरप्रभ महा निर्मल चित्त राम लक्ष्मण सीताकी भक्ति करता भया महिलों के शिखरकी कांति से उज्वल भयाहै आकाश जहां ऐसा जो नगर वहां चलनेकी राजा ने प्रार्थना करी परन्तु राम ने न मानी वंशगिरि के शिखर हिमाचल के शिखर समान सुन्दरजहां नलिनी वन में महा रमणीक विस्तीर्ण शिला वहां आप हंस समान विराजे कैसा है वन? मानाप्रकार के वृक्ष और लताओं कर पूर्ण और नानाप्रकार के पची करहै नादजहां सुगन्ध पवन चले है भान्ति २ के फल पुष्प उनसे शोभित और सरोवरों में कमल फूल रहे हैं स्थानक पति For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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