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प्रय
कहता भया हे भव्योत्तम तुम मुनियों की भक्ति करी सो में अति प्रसन्न भया ये मेरे पूर्व भव के पुत्र हैं जो तुम मांगो सो में देहुं तब श्रीरघुनाथ क्षण एक विचार कर बोले तुम देवन के स्वामी हो कभी हमपै अोपदा परे तो चितारियो साधुवोंकी सेवाके प्रसादसे यह फल भयाजो तुम सारिखोंसे मिलाप भया दब गरुडेन्द्रनेकही तुम्हारा वचन में प्रमाण किया जब तुमको कार्य पड़ेगा तब मैं तुम्हारे निकटहीहूं ऐसा कहा तब अनेक देव मेघकी ध्वनि समान वादित्रोंके नाद करतेभये साधुवोंके पूर्वभव सुन कईएक उत्तम मनुष्य मुनिभये कई एक श्रावकके व्रत धारतेभए वे देशभूषण कुलभूषण केवली जगत् पूज्य सर्व संसार के दुःखसेरहित नगर ग्राम पर्वतादि सर्व स्थानमें विहारकर धर्मका उपदेश देतेभये यह दोनों केवलियों के पूर्व भवका चरित्र जे निर्मल स्वभाव के धारक भव्यजीव श्रवण करें ये सूर्य समान तेजस्वी पाप रूप तिमिरको शीघ्रही हरें।। इति श्रीउनतालीसवां पर्व संपूर्णम् ॥ - अथानन्तर केवली के मुख से समचन्द को चरम शरीरी कहिये तद्भव मोक्षगामी सुतकर सकल राजा जय जय शब्द कहकर प्रणाम करतेभये और वंशस्थलपुरका राजा सुरप्रभ महा निर्मल चित्त राम लक्ष्मण सीताकी भक्ति करता भया महिलों के शिखरकी कांति से उज्वल भयाहै आकाश जहां ऐसा जो नगर वहां चलनेकी राजा ने प्रार्थना करी परन्तु राम ने न मानी वंशगिरि के शिखर हिमाचल के शिखर समान सुन्दरजहां नलिनी वन में महा रमणीक विस्तीर्ण शिला वहां आप हंस समान विराजे कैसा है वन? मानाप्रकार के वृक्ष और लताओं कर पूर्ण और नानाप्रकार के पची करहै नादजहां सुगन्ध पवन चले है भान्ति २ के फल पुष्प उनसे शोभित और सरोवरों में कमल फूल रहे हैं स्थानक पति
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