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॥५५॥
पद्म जिसके हे नाथ दयावान् शरणागत प्रतिपाल आजमेरी माताने मुझे घरसे निकास दई सो अवमें तुम्हारे
भेषकर तुम्हारे स्थानक रहना चाहूं हूं तुम मो सो कृपा करो रोत दिन तुम्हारी सेवाकर मेरा यह लोक परलोक सुधरेगा धर्म, अर्थ काम इन में कौन सा पदार्थ है जो तुम में न पाइये तुम परम निधान हो में पुण्य के योग से तुमपाये इसभांति कन्याने कही तब इसका मनअनुरागी जान विकल तापसी कामकर प्रज्वलित बोला हे भद्र में क्या कृपा करूं तू कृपा कर प्रसन्न हो मैं जन्म पर्यंत तेरी सेवा करूंगा ऐसा कहकर हाथ चलावने का उद्यम किया तब कन्या अपने हाथ से मने कर आदर सहित कहती भई । हे नाथ में कुमारी कन्या तुम को ऐसा करना उचित नहीं, मेरी माता के घर जाय कर पूछो घरभी निकटही है जैसी मो पर तुम्हारी करुणा भई है,तैसे मेरी मा को प्रसन्न करो वह तुम को देवेगी तब जो इच्छा होय सो करियो, यह कन्याके वचन सुन मूढ़तापसी व्याकुल होय तत्काल कन्याकी लार रात्रिको उसकी माताके पास
आया, काम कर व्याकुल है सब इन्द्रिय जिस की जैसे माता हाथी जल के सरोवर में बढ़े तैसे नृत्यकारिणी के घरमें प्रवेश किया। गौतम स्वामी राजाश्रेणिकसे कहे हैं हे राजन् कामकर प्रसाहुवा पाणी न स्पर्श न आस्वादेन सूघे न देखे न सुने न जाने न डरे और नलज्जा करे महा मो हसे निरन्तर कष्टको प्राप्त होय है जैसे अन्धा प्राणी सों के भरे कूप में पड़े तैसे कामान्ध जीव स्त्री के विषयरूप विषमकूपमें पडे सो वह तापसी नृत्यकारिणी के चरणों में लोट अति अधीन होय कन्या को याचताभया उसने तापसी को बांध राखा राजाको समस्याथी सो राजा ने आयकर रात्रिको तापसी पन्धा देखा प्रभात तिरस्कार निकास दिया सो अपमान कर लज्जायमान महोदुःख को धरताहुवो पृथिवी में भ्रमणकर मूवा अनेक
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