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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir ॥५४॥ जे आभूषण वेई हैं सुन्दर पक्षी जहां यहदोनों वीर नवयौवन महा शोभा से पूण केयक दिन सुख से विराजे राजा शत्रु दमन करे है सेवा जिनकी ॥ अथान्तरसर्वलोक के चित्तको आनन्दके करणहारे रामलक्षमणमहाधीरबीर सीतासहितअर्धरात्रिको उठचले लक्षमण ने प्रियवचनकर जैसे वनमाला को धीर्य बंधायाथा तैसे जितपद्मा को धीर्यबंधायाबहुत दिलासाकर आपश्रीराम के लारभए नगरके सर्बलोक को और नृप को इनके चले जाने से प्रति चिंता भई धीर्यनरहा यहक श्री गौतमस्वामीराजाश्रेणिक से कहे हैं हे मगधाधिपति वे दोनों भाई जन्मांतर के उपार्जेजे पुण्य तिनसे सर्व जीवोंके बल्लभ जहां २ गमन करें तहां २ राजाप्रजासर्व लोक सेवाकरें और यह चाहें कि यह न जावें तो भला । सर्व ईदियोंके सुखऔर महा मिष्टअन्नपानादि बिनाहीयत्न इनको सर्वत्र सुलभ जे पृथिवी विषे दुर्लभ वस्तु हैं वेसब इनको प्राप्त होय महाभाग्य भव्य जीव सदा. भोगों से उदास हैं ज्ञान के और विषयों के बैर है ज्ञानी ऐसा चितवन करे हैं कि इन भोगों कर प्रयोजन | नहीं ये दुष्ट नाश को प्राप्त होंय इस भांति यद्यपि भोगों की सदा निन्दाही करे हैं भोगों से विरक्त ही । हैं दीप्ति से जीता है सूर्य जिन्होंने तथापि पूर्वोपार्जित पुण्यके प्रभावसे पहाड़के शिखरपर निबोस करे हैं बहां भी नाना प्रकार सामग्री का संयोग होय है जवलग मुनि पद का उदय नहीं तब लग देवों समान सुख भोगवे हैं अड़तीसवां पर्व पूर्ण भया अथानंतर ये दोनो वीर महाधीर सीता सहित बन में पाए कैसा है बन नाना प्रकार केवृक्षों करशोभित अनेक भांति के पुष्पों की सुगन्धिता कर महासुगंध लतावों के मंडपों से युक्त यहां राम लक्षमण रमते रमते आए कैसे हैं दोनों समस्त देवो पुनीत सामग्री कर शरीर का है आधार For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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