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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म पुराण ॥५३॥ अथान्तर श्री रामचन्द्र महा न्याय के वेत्ताने अतिर्यि का पुत्र जोविजयरथ उसे अभिषेक कराय पिताके पदपर थापा उस ने अपना समस्त वित्त दिखाया सो उसका उसको दिया और उस ने अपनी बहिन रत्नमाला लक्षमण को देनी करी सो उन्होंने प्रमाणकरी उसके रूपको देख लक्षमण हर्षितभए मानों साक्षात् लक्ष्मीही है फिर श्रीराम लक्षमण जिनेंद्रकीपूजाकर पृथिवीधरके विजयपुरनगरमेंवापिस गए और भरतने सुनीकि अतिवीर्य को नृत्यकारिणीने पकडा सो विरक्तहोय दीक्षाधरी शत्रुधनहास्यकरने लगा तब उसेमने कर भरत कहतेभए अहो भाई गजा अतिवीर्य धन्य है जे महादुःख रूप बिषियों को तज शान्तिभाव को प्राप्त भए वे महा स्तुति योग्य हैं तिनकी हांसी कहां तपका प्रभाव देखो जो रिपु भी प्रमाण योग्य गुरु होय हैं यहतप देवनको दुर्लभहै इसमान्त भरतने प्रतिवीर्य की स्तुतिकरी उस ही समयअतिवीर्यका पुत्रविजयस्थोयाअनेक सामन्तोंसहित सोभरत को नमस्कार करतिष्ठाक्षणिक और कथा कस्जो रत्नमाला लक्षमणकोदई उसकीबडीवहिन विजयसुन्दरी नानाप्रकार प्राभूषण की धरण हारी भरत को परणाई और बहुत द्रव्य दियो सो भस्त उस की बहिन परण बहुत प्रसन्न भए विजयस्थ || से बहुत स्नेह किया यही बड़ों की रीत है और भरत महा हर्ष थकी पूर्ण है मन जिस का तेज तुरंग पर चढ़कर अतिवीर्य मुनिके दर्शनको चला सो जिसः गिरिपर मुनि विराजे थे वहां पहिलेमनष्यदेखगए थेसा लार है तिन को पूछते जांय हैं कहां महामुनि कहां महामुनि,वे कहे हैं आगे विराजे हैं सो जिसगिरिपर मुनिथे वहां जाय पहुंचे कैसाहै गिरि विषम पाषाणोंके समूहसे महाअगम्य और नानाप्रकारके वृक्षोंसे पूर्ण पुष्पोंकी सुगंधकर महामुगन्धित और सिंहादिक कर जीवोंसे भरा सोराजा भरत अश्वसे उतर महाविन्य For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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