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पद्म
पुराण
॥५३५५
निशा व्यतीत भई प्रात समय दोनों वीरों ने उठ कर प्रात क्रिया कर एक जिनमन्दिर देखा सो उस में प्रवेश कर जिनेन्द्र का दर्शन किया वहां आर्यिकावों का समूह विराजता था तिन की वन्दना करी और आयिकाओं की जो गुरानी वरधर्मा महा शास्त्र की वेत्ता सीता को इस के समीप राखी आप भगवान् की पूजा कर लक्षमण सहित नृत्यकारणी स्त्री का भेष कर लीला सहित राज मन्दिर की तरफ चले इंद्र की अप्सरा तुल्य नृत्यकारणी को देख नगर के लोक आश्चर्य कोप्राप्त भए लारलागे ये महा भाषण पहिरे सर्व लोक के मन और नेत्र हरते राज द्वार गए चौवीसौ तीर्थकरों के गुण गाए पराणों के रहस्य बताए प्रफुल्लितहें नेत्र जिनके इनकी ध्वनि राजा सुन इन्होंके गुणका खेंचा समीप आया जैसेरस्सी का
खेंचा जल के विषे काष्ठ का भार आवे नृत्य कारणी ने नृप के समीप नृत्य किया रेचक कहिये भ्रमण । अंग मोड़ना मुलकमा, अबलोकना, भौंहों काफेरेना मन्द मंद हंसना जंघावहुकर पल्लव तिनका हलावना
पृथिवी को स्पर्श शीघ्रही पगों का उठावना राग का दृढ़ करना केश रूप फांस का प्रवर्तन इत्यादि चेष्टा रूप काम बाणों से सकल लोकों को बींधे स्वरों के ग्राम यथा स्थान जोड़ने से और वीण के बजायवे कर सबोंको मोहित किए जहां नृत्यकी खडीरहे वहां सकल भाव के नेत्र चलेजाय, रूपकर सबोंकनेत्रस्वरकर सबों के श्रवण गुणकर सबोंका मनबांध लिया,गौतमस्वामी कहेहेकि हेश्रेणिक जहां श्रीराम लक्षमणनृत्य करें
और गावें बजावें वहां देवोंके मनहरे जाय तो मनुष्योंकी क्याबात श्रीऋषभादि चतुर्विंशतितीर्थंकरोंकेयश गाय सकलसभा बशकरी राजाको संगीतकर मोहित देख शृंगार रससे बीररसमें पाए आँख फेर भौंहे फेर महा प्रवलतेज रूप होय अतिवीर्यको कहतेभए हे अतिवीर्य तेंने यह क्या दुष्टता प्रारंभी तुझे यह मंत्र ।
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