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पद्म पुराच
।। ५२६०
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लक्षमण विचारता भया यह कोई राजकुमारी महाश्रेष्ठ मानों ज्योति की मूर्ति ही हैं सो महाशोक के कर पीडित है मन जिसका यह अपघात कर मरण बांधे है सो मैं इसकी चेष्टा छिपकर देखूं ऐसा विचारकर छिपकर के वृक्ष तले बैठा मानों कौतुक युक्त देव कल्पवृक्ष के नीचे बैठे उसही बट के तने
सनी की सी चाल जिसकी और चन्द्रमा समान है बदन जिसका कोमल है अंग जिसका ऐसी वनमाला आई जलसे चला वस्त्रकर फाँसी बनाई और मनोहर बाणीकर कहती भई हो इसवृक्ष के निवासी देवता पाकर मेरी बात सुनो कदाचित बनमें विचरता लक्षमण यावे तो तुम उसे कहियो जो तुम्हारे विरह
महा दुःखित बनमाला- तुम में चित्त लगाय बट के वृक्ष में वस्त्र की फांसा लगाय मरण को मात्र भई हमने देखी और तुमको यह सन्देशा कहा है कि इस भवमें तो तुम्हारा संयोग मुझे न मिला अब परभव में तुमही पति हूजियो यह वचन कह बृक्षकी शाखा सों फांसी लगाय आप फांसी लेने लगी, उसही समय लक्ष्मण कहताभया हे मुग्धे मेरी भुजाकर श्रालिंगन योग्य तेरा कण्ठ उसमें फांसी काहे को डारे है है सुन्दरवदनी परमसुन्दरी में लक्ष्मण हूं जैसा तेरेश्रवण में आया है तैसा देख और प्रतीत न श्रावे तो निश्चय कर लेहु ऐसा कह उसके करसे फांसी हर लीनी जैसे कमल झागों के समूहको दूर करे तब वह लज्जाकर युक्त प्रेमकी दृष्टि कर लक्षमण को देख मोहित भई कैसा है लक्षमण जगत् के नेत्रोंका हरणहारा है रूप जिसका परम आश्चर्यको प्राप्त भई चित्त में चितवे है यह कोई मुझपर देवोंने उपकार किया मेरी अवस्था देख दयाको प्राप्त भए जैसा में सुनाथा तैसा देव योग से यह नाथ पाया जिसने मेरे प्राण बचाए ऐसा चिंतक्न करती बनमाला लक्षमण के मिलाप से अत्यन्त अनुराग को प्राप्त भई
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