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पुराण
लोलुपी भ्रमर गुंजार करे हैं वहां महा पवित्रस्थानक में तिष्ठते ध्यानाध्ययन विषे लीन महातप के बारक ४९० || साधु देखे तिनको नकस्कारकर वे राजा जिननाथका जो चैत्यालय वहां गये उससमय पहाड़ों की तलहटी तथा पहाड़ों के शिखर में अथवा रमणीक बनों में नदीयों के तट विषे नगर ग्रामादिक में जिन मंदिर थ वहाँ नमस्कार कर एक समुद्र समान गम्भीर मुनियों के गुरू सत्यकेतु आचार्य तिन के निकट गये नमस्कार कर महा शांतस्स के भरे आचार्य से वीनती करते भये हे नाथ हमको संसार समुद्र से पार उतारो -तब मुनि कही तुमको भव से पारउतारम हारी भगवती दीक्षा सो अंगीकार करो यह मुनिकी आज्ञा पाके परम हर्षको प्राप्तभये राजा विदग्धविजय मेककूर संबाम लोलुप श्रीनागदमन घीर शत्रुदम घर विनोद कंटक सत्यकठोर प्रियर्धन इत्यादि निर्जन्म होते भये उनका गज तुरंग स्थादि सकल साज सेवक लोकोंने जायकर उनके पुत्रादिककोसोंपा तब वे बहुतचिन्त्यवान भएफिर समझकर नानाप्रकार के. नियम धार भए कैवक सम्यक दर्शनको अंगीकारतोषको प्रासभए कैयक निर्मल जिनेश्वर देव का धर्म श्रवण कर पाप पममुख भए बहुत सति रामलक्ष्मण की वार्ता सुनु साधुभए कैयक श्रावक के अमुक्त भारते भए बहुत रास आर्थिक मई बहुधाविका भई कैयक सुखराम का सर्वांत भरत दशरथ पर जाकर कहते गप सो सुनकर दशस्य और भरत का नकद को मा गए ।
अमानन्तर राज! दशरथ भरत को राज्याभिषेक कर कछुयक जो सम के वियोग कर : व्याकुल था सो समता में लाभ विलाप करना जो अंतःपुर उसे प्रति बोध नगर से वन को गए सर्व भूतिचित स्वामीको प्रणामकर बहुत खोंसहित जिनीवा आदी एकाकी बिहारी जिन कालपी
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