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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुराण ॥४६॥ दुःख रूप बन में अकला ही भटके है कैसा है दुःख रूप बन अनेक भव भय रूप वृक्षों से भरा है ।। अथानन्तर केकई सकल कला की जाननहारी भरतकी यह चेष्टाजॉन अतिशोकको धरती मनमें चितवे है कि भरतार और पुत्र दोनोंही वैराग्य धारा चाहेहैं कौनउपायकर इनका निवारण करूं इसभांति चिन्ता कर ब्याकुलभया है मन जिसका तब उसको राजाने जो करदीयाथा सी याद आया और शीघही पतिपैजाप्राधे सिंहासनपर बैठी और बीनती करती भई कि हे नाथ सर्वही स्त्रियों के निकट तुमने मुझे कृपा कर कही थी जोत मांगे सो में देउ सो अब देवो तुम महा सत्यवादीहो आँस्दानकर निर्मलकीर्ति तुम्हारी जगत्में विस्तर रही है तब दशरथ कहतेभये ह प्रिये जो तेरी बांचा होय सोही लेहु तबराणी केकई अांस ॥ Hडारती सती कहतीभई हे नाथ हमने ऐसी क्या चूककी जो तुम कठोर चित्तकिया हमको तजाचाहोहो हमारा जीवतो तुम्हारे श्राधीन है और यह जिनदीक्षा अत्यन्त दुर्घर सो लेयवेको तुम्हारी बुद्धि काहेको प्रवृत्तिहै। । यह इन्द्र समानजे भोंग उनकर लडाया जो तुम्हारा शरीर सो कैसे मुनिपदधारोगे कैसाहै मुनिपद अत्यन्त विषहै इस भांति जब रोणी केकईने कहा तब आप कहतेभए हे कांते समर्थोको कहाँ विषम मेंतो निसन्देह मुनिबत धरूंगा तेरी अभिलाषा होयं सो मांग लेवो तब राणी चिन्तावान होय नीचा मुखकर कहतीमा हे नाथ मेरे पुत्रको राज्य देवो तब दशरथ बोले इसमें क्या सन्देह तें धरोहर हमारे मेलीथी सो अब लेषी तैने जो कहा सो हमने प्रमाणकिया अब शोक तज तेंने मुझे ऋण हित किया तब राम लक्ष्मणको बुलाय दशरथ कहताभया कैसे हैं दोनों भाई महा विनयवान हैं पिताके प्राज्ञाकारीहें राजा कहे है हेयरस यह केकई अनेक कलाकी पारगामिनी इसने पूर्व महा घोर संग्राममें मेरी सारथिपमा किया यह अतिचतुर For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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