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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra चा पुराच ५४० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कैसी है सीता महा विनयवन्ती है तब मुनि कहते भये हे दशरथ तुम सुनो इन जीवोंकी अपने अपने उपार्जे कर्मों से विचित्रगति है यह भामण्डल पूर्व संसार में अनन्त भ्रमण कर अति दुःखित मया कर्म रूपी पवनका प्रेरा इस भवमें आकाशसे पड़ता राजा चन्द्रगतिको प्राप्तभया सो चन्द्रगतिने अपनी पुष्पवतीको सौंपा सो नवयोवन में सीताका चित्रपट देख मोहितभया तब जनकको एक विद्याधर कृत्रिम अश्व होय लेगया यह करार ठहरा जो धनुष चढ़ावे सो कन्या परणे फिर जनकको मिथिलापुर लेय आए और धनुष लाए सो धनुष श्रीरामने चढ़ाया और सीता परणी तब भामण्डल विद्याघरोंके मुख से यह वार्ता सुन कोकर विमान में बैठ आवे था सो मार्ग में पूर्व भव का नगर देखा तब जातिस्मरण हुवा कि मैं कुण्डलमण्डित नामा इस विदग्धपुर का राजा श्रघर्मी था पिंगल ब्राह्मण की स्त्री हरी फिर मुझे अरण्य के सेनापति ने पकड़ा देश से कादिया सर्वस्व लूटलिया सो महापुरुष के आश्रय याय मद्य मांस का त्याग किया शुभ परिणामों से मरणकर जनक की राणी विदेहा के गर्भ से उपजा और वह पिंगल ब्राह्मण जिसकी स्त्री हरी सो बन से काष्ठ लाय स्त्री रहित शून्यकुटी देख अति विलाप करतो भया कि हे कमल नयनी तेरी गणी प्रभावती सारिषी माता और चक्रध्वज सारिखे पिता तिनको और बड़ी विभूति और बड़ा परिवार उसे तज मोसे प्रीति कर विदेश आई रूखे आहार और फाटे वस्त्र तैंने मेरे अर्थ से आदरे सुन्दर हैं सर्व अंग जिसके अवतू मुझेतज कहां गई इस भांति वियोगरूप अग्नि दग्धायमान वह पिंगल विप्र पृथिवी पर महा दुःख सहित भ्रमण कर मुनिराज के उपदेश से मुनिहोय तप अंगीकार करता भया तपके प्रभावसे देव भया सो मनमें चिन्तवताभया कि वह मेरी कान्ता सम्यक्त For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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