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पुराच
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कैसी है सीता महा विनयवन्ती है तब मुनि कहते भये हे दशरथ तुम सुनो इन जीवोंकी अपने अपने उपार्जे कर्मों से विचित्रगति है यह भामण्डल पूर्व संसार में अनन्त भ्रमण कर अति दुःखित मया कर्म रूपी पवनका प्रेरा इस भवमें आकाशसे पड़ता राजा चन्द्रगतिको प्राप्तभया सो चन्द्रगतिने अपनी पुष्पवतीको सौंपा सो नवयोवन में सीताका चित्रपट देख मोहितभया तब जनकको एक विद्याधर कृत्रिम अश्व होय लेगया यह करार ठहरा जो धनुष चढ़ावे सो कन्या परणे फिर जनकको मिथिलापुर लेय आए और धनुष लाए सो धनुष श्रीरामने चढ़ाया और सीता परणी तब भामण्डल विद्याघरोंके मुख से यह वार्ता सुन कोकर विमान में बैठ आवे था सो मार्ग में पूर्व भव का नगर देखा तब जातिस्मरण हुवा कि मैं कुण्डलमण्डित नामा इस विदग्धपुर का राजा श्रघर्मी था पिंगल ब्राह्मण की स्त्री हरी फिर मुझे अरण्य के सेनापति ने पकड़ा देश से कादिया सर्वस्व लूटलिया सो महापुरुष के आश्रय याय मद्य मांस का त्याग किया शुभ परिणामों से मरणकर जनक की राणी विदेहा के गर्भ से उपजा और वह पिंगल ब्राह्मण जिसकी स्त्री हरी सो बन से काष्ठ लाय स्त्री रहित शून्यकुटी देख अति विलाप करतो भया कि हे कमल नयनी तेरी गणी प्रभावती सारिषी माता और चक्रध्वज सारिखे पिता तिनको और बड़ी विभूति और बड़ा परिवार उसे तज मोसे प्रीति कर विदेश आई रूखे आहार और फाटे वस्त्र तैंने मेरे अर्थ से आदरे सुन्दर हैं सर्व अंग जिसके अवतू मुझेतज कहां गई इस भांति वियोगरूप अग्नि दग्धायमान वह पिंगल विप्र पृथिवी पर महा दुःख सहित भ्रमण कर मुनिराज के उपदेश से मुनिहोय तप अंगीकार करता भया तपके प्रभावसे देव भया सो मनमें चिन्तवताभया कि वह मेरी कान्ता सम्यक्त
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