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पुराण
॥४२॥
उदासभया तब गुनि कहतेभए भवसागरस पार करणहारी यह भगवती दीक्षाहै सो लेग्रो राजातो वैराग्य को उद्यमीभया और भामंडलके राज्यका उत्सव होता भया ऊंचे स्वर नगारे बाजे नारी गीत मावती भई बांसुरी आदि अनेक वादित्रोंके समूह बाजते भए ताल मंजीरा आदि कांसीके वादित्र बाजे ऐसा बन्दीजनोंका शब्द होताभया कि शोभायमान जनक राजाका पुत्र जयवन्त होवे सो महेंद्रोदय उद्यान में ऐसा मनोहर शब्द गत्रिमें भया जिससे अयोध्याके सर्व जन निद्रा रहित होगए फिर प्रातःसमय मुनिराजके मुखसे महाश्रेष्ठ शब्द सुनकर जैनीजन अति हर्षको प्राप्तभए और सीताजनक राजाका पुत्र जयवन्त होवे ऐसी ध्वनि सुनकर मानों अमृतसे सींची गई रोमांच कर संयुक्त भयाहे सर्व अंग जिस का और फरके है बांई अांख जिसकी सोमनमें चितवती भई कि यह जोवारम्बार ऊंचा शब्द सुनिए कि जनकराजा का पुत्र जयवन्त होवे सो मेरा पिताभी जमकहै कनकका बड़ा भाई और मेरा भाई जन्मता ही हरा गया था सो वही न होय ऐसा बिचारकर भाई के स्नेहरूप जलकर भीज गाहै मन जिस का सो ऊंचे स्वरकर रुदन करती भई तब राम अभिराम कहिए सुन्दरहै अंग जिसका महा मधुर बचनकर कहतेभए हे प्रिये तू काहेको रुदन करे है जो यह तेरा भाई है तो अब खबर अावे है और जे
और है तो हे पंडिते तू क्यों सोच करे है जे विचक्षण हैं वे मुए का हरेका गएका नष्ट हुएकाशोक न करें हैं बल्लभेजे कायर हैं और मूर्ख हैं उनके विषाद होयहै और जे पंडित हैं पराक्रमी हैं तिनके बिषादनहींहोयहै इस भांति रामके और सीताके बचन होवे हैं उसही समय बधाई वारे मंगल शब्दकरते आए सो राजादशरथने महा हर्ष से बहुत आदर से नानाप्रकार के दानकरे और पुत्रकलत्रादिसर्व कुटुंब सहित वनमें गयासो ।
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