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प्रय पुस
॥४४॥
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भांति न मिटे अब मुझे मरणही शरण है । ऐसा विचार एक विशाखनामा भण्डारी को बुलाय कहती भई हे भाई यह बात तु किसीको मत कहियो मुझे विषसे प्रयोजन है सो तू शीघ्र लेना तब प्रथमतो उसने शंकावान होय लानेमें ढीलकरी फिर बिचारी कि औौष्मधिके निमित्त मंगाया होगा सो लेनका गया और राखी शिथिला गात्र मलिनचित्त बस्त्रोड़ सेजपर पड़ी राजादशरथने अन्तःपुर में आयकर तीन राणी देखी सुप्रभा न देखी सुप्रभासे राजाका बहुत स्नेह सो इसके महिलमे राजा श्राय खड़े रहे उस समय जो विष लेने को यथा सो ले आया और कहताभया । हे देवी यह विष ले यह शब्द राजाने सुना तब उसके हाथसे उठाय लिया और आप राणीकी सेज ऊपर बैठ गए तब राणी सेज से उतर बैठी राजाने ग्रहकर सेज ऊपर बैठाई और कहते भए हे बल्लभे ऐसा क्रोध काहे से किया जिसकर प्राण तजा चाहे है सब बस्तुवों में से जीतव्य प्रिय है सर्व दुःखों से मरणका बड़ा दुःख है । ऐसा तुझे क्या दुःख है जो विष मंगाया तू मेरे हृदयका सर्वस्व है जिसने तुझे क्लेश उपजायाहो उस को मैं तत्काल तीव्र दंडदूं हे सुन्दरमुखी तू जिनेन्द्रका सिद्धान्त जाने है शुभ शुम गति के कारण जाने है जो विष तथा शस्त्र आदि से अपघात कर मरे हैं वे दुर्गति में पड़े हैं ऐसी बुद्धि तोहि क्रोध से उपजी सो क्रोध को धिक्कार यह क्रोध महा अंधकार है अब तू प्रसन्न हो जे पतिव्रता है तिन में वह जौलग प्रीतम के अनुराग के बचन न सुने लौलग ही क्रोध का प्रवेश है तब सुप्रभा कहती भई हे नाथ तुम पर कोप कहां परन्तु मुझे ऐसा दुख भयाजो मरण विना शांत न होय तबराजाने कही हे राणी तुझेऐसा क्या दुख भया तब राणीने कही भगवानका गंधोदक और रागियोंकोपठाया और मुझे न पठायास मेरे में कौन कार्य
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