________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobetirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पुराव ॥३६॥
और मोतियों की माला कर मण्डित रत्नों की ज्योति कर उद्योत मानो कल्प वृक्ष कर शोभित है. १५ पन्द्रहवें स्वप्ने में पञ्च वर्ण के महा रत्नों की राशि अत्यन्त ऊंची देखी जहां परस्पर रत्नों की किरणों के उद्योत से इन्द्रधनुष चढ़ रहा है १६ सोलहवें स्वप्ने में निर्धन अग्नि ज्वाला के समूह से प्रज्वलित देखी। ऐसे सोलह स्वप्ने देख कर मंगल शब्द के श्रवण से माता जागती भई ॥
सखी जन कहें हैं हे देवी तेरे मुखरूप चन्द्रमाकी कांतिसे लज्जावान् हुअा जो यह निशाकर (चंद्र मा) सो मानो कांतिकर रहित हुआ है और उदयाचल पर्वतके मस्तक पर सूर्य उदय होने को सन्मुख भया है मानो मंगलके अर्थ सिन्दूरसे लिप्त स्वर्गका कलश ही है और तुम्हारे मुखकी ज्योति । से और शरीरकी प्रभासे तिभिरका क्षय हुश्रा मानो इससे अपना उद्योत वृथा जान दीपक मंद ज्योति भये हैं और पक्षियोंके समूह मनोहर शब्द करेहैं मानो तिहारे अर्थ मंगल पढ़े हैं और जो यह मंदिर में बारा है तिनके वृक्षोंके पत्र प्रभात की शीतलमंद सुगन्ध पवन से हालें हैं और मन्दिरकी वापि । का में सूर्य के बिम्ब के विलोकन से चकवी हर्षित भई मिष्ट शब्द करती संती चकवे को बुलाये हैं। और यह हंस तेरी चाल देख कर अति अभिलाषा बान हरषित होय महा मनोहर शब्द करे हैं। और सारसोंके समूह का सुन्दर शब्द होय रहा है । इस लिये हे देवी अब रात्रि पूर्ण भई तुम निद्रा । को तजो । यह शब्द सुनकर माता सेजसे उठी जिस पर कल्प वृत्तके फूल और मोती बिखर रहेहैं मानो वह सेज क्या है तारोंसे संयुक्त आकाश ही है ।
मरुदेवी माता सुगंध महलसे बाहिर आई और सकल प्रभातकी क्रिया कर जैसे सूर्यकी प्रभा
MARSamas
For Private and Personal Use Only