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पन पुराण ॥४१॥
सो सव पृथिवी उजाड़े है अनेक आर्य देश विध्वंस किये वे पापी प्रजा को एक वर्ष कियाचाहे हे सो प्रजा नष्टभई तब हमारे जीनेकर क्या अब हमको क्या कर्तव्य है उनसे लड़ाई करना अथवा कोई गढ़ पकड़ तिष्ठे लोगोंको गढ़ में राखें कालिंद्रिभागा नदीकीतरफ विषम म्लेच्छहें कहांजावें अथवा विपुलाचल की तरफ जावें अथवा सर्व सेना सहित कुंजगिरिकी ओर जा पर सेना महा भयानक आये है सोधु श्रावक सर्वलोक अति विहल हैं वे पापी गो आदि सव जीवों के भक्षक हैं सो जो आप आज्ञा देवें सो करें यह राज्य भी तुम्हारो और पृथिवी भी तुम्हारी यहांकी प्रतिपालना सब तुमको कर्तव्यहै प्रजा की रक्षा किये धर्मकी रक्षा होय है श्रावक लोक भाव सहित भगवानकी पूजा करे हे नानाप्रकारके व्रत घरे हे दान करे हे शील पाले हैं सामायिक करे हैं पोशा परिक्रमणा करे हैं भगवानके बड़े बड़े चैत्यालयों में महाउत्सव होय हे विधि पूर्वक अनेक प्रकार महा पूजा होय है.अभिषेक होय है क्वेिकी लोक प्रभोवना करे हैं और साधु दश लक्षण धर्मकर युक्त आत्मच्यान में भारद मोघ का साधन तपकरे हे सो प्रजाके नष्ट भए साघु और श्रावक का धर्म लुपे है और प्रजा के होते धर्म अर्थ काम मोक्ष सब सफें हैं जो राजा पर चक्र से पृथिवी की प्रतिपालना करे सो प्रशंसा के योग्य है राजा के प्रजाकी रक्षासे इस लोक परलोकविपे कल्याण की सिद्धि होय है प्रजाबिना राजा नहीं और सजाबिना प्रजानहीं जीवदया मय धर्मका जो पालन करे सो यह लोक परलोक में सुखी होय है धर्म मर्थ काम मोच की प्रवृत्ति लोगों के राजाकी रक्षा से होयहै अन्यथा कैसे होय राजाके भुजबलकी बाया पायकर प्रजा सुखसे रहे है जिस के देशमें धर्मात्मा धर्म सेवन करे हैं दान तपशील पूजादिक करे हे सो प्रजाकी रक्षाके योगसे छठा अंश ।
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